Thursday, 1 August 2013

अध्याय -1 ते अध्याय -6


    ।। श्रीपादराजम शरणं प्रपद्ये ।।

     ।। दिगंबरा दिगंबरा श्रीपाद वल्लभ दिगंबरा ।।

    ॥  श्रीपादराजं  शरणं  प्रपद्ये  ॥
   ।। ॐ  सर्वजगद्रक्षाय  गुरु  दत्तात्रेयाय  श्रीपाद  श्रीवल्लभ  परमात्मने  नम: ।।
श्रीपाद  श्रीवल्लभ चरित्रामृत
मूल  ग्रंथ  रचयिता

श्री  शंकर  भटऽ

(श्री  श्रीपाद  श्रीवल्लभांचे  समकालीन)

शंकरभट  लिखित  तेलुगु  प्रत  उपलब्ध  करून  दिली

श्री  मल्लादी  गोविंद  दीक्षितुलु,  भीमावरम्.

मराठी अनुवाद 




श्री  हरिभाऊ  जोशी  निटूरकर  (भाऊ  महाराज)
हैदराबाद
॥  दिगंबरा  दिगंबरा  श्रीपाद  श्रीवल्लभ  दिगंबरा  ॥  ॥  दिगंबरा  दिगंबरा  श्रीपाद  श्रीवल्लभ  दिगंबरा  ॥  ॥  दिगंबरा  दिगंबरा  श्रीपाद  श्रीवल्लभ  दिगंबरा  ॥





॥  श्री  गुरुवे  नम:  ॥  ॥  श्रीपादराजं  शरणं  प्रपद्ये  ॥ 

अध्याय  -1
 

श्री  व्याघ्रेश्वर  शर्माचा  वृतांत   

श्री  महागणपती,  श्री  महासरस्वती,  श्रीकृष्ण  भगवान,  सर्व  चराचरवासी  देवी-देवता  आणि  सकल  गुरु  परंपरेच्या  चरणी  नतमस्तक  होऊन,  मी  त्या  अनंत  कोटी  ब्रह्मांड  नायक  श्री  दत्तप्रभुंच्या,  कलियुगातील,  श्रीपाद  श्रीवल्लभ  स्वामींच्या  अवतार  लीलांचे  वर्णन  करण्याचा  संकल्प  केला  आहे.

अनसूया-अत्रिनंदन  भगवान  श्री  दत्तात्रेय  यांनी  आंध्र  प्रदेशातील  पीठिकापुरम्  या  गावी  श्रीपाद  श्रीवल्लभ  या  नावाने  अवतार  घेतला.  त्यांच्या  दिव्य  चरित्राचे  वर्णन  यथायोग्य  करणे  अनेक  पंडितांना,  विद्वानांना  सुध्दा  जमले  नाही.  ते  करण्याचे  मी  धाडस  करीत  आहे,  ते  केवळ  आपणासारख्या  थोर,  विद्वान  श्रोत्यांच्या  आशिर्वादामुळेच.

मी  शंकरभट्ट,  देशस्थ  कर्नाटकी  स्मार्त  ब्राह्मण.  माझा  जन्म  भारद्वाज  गोत्रात  झाला.  मी  श्रीकृष्ण  दर्शनासाठी  ''उडपी''  तीर्थस्थानी  गेलो  असताना  तेथील  नयन  मनोहारी,  मोरमुकुटधारी  कृष्णाने  मला  मंत्रमुग्ध  केले.  त्याने  मला  कन्याकुमारीस  जाऊन  कन्यका  परमेश्वरीचे  दर्शन  घेण्याची  आज्ञा  केली.  त्याप्रमाणे  मी  कन्याकुमारीस  जाऊन  त्रिवेणी  सागरात  स्नान  करून  श्रीकन्यका  देवीचे  दर्शन  घेतले.  मंदिरातील  पुजारी  मोठ्या  भक्तीभावाने   देवीची  पूजा  करीत  होता.  मी  आणलेले  लाल  फूल  त्याने  मोठ्या श्रध्देने  देवीस  अर्पण  केले.  देवी  अंबा  माझ्याकडे  मोठ्या स्नेहपूर्ण  नजरेने  पहात  असल्याचे  जाणवले.  ती  म्हणत  होती  ''शंकरा,  तुझ्या  अंतरंगातील   भक्तीभावावर  मी  प्रसन्न  झाले  आहे.  तू  कुरवपूर  क्षेत्रास  जा  आणि  श्रीपाद  श्रीवल्लभ  स्वामींच्या  दर्शनाने  आपल्या  जीवनाचे  सार्थक  कर.  त्यांच्या  दर्शनाने  मनाला,  अंतर  आत्म्याला  जो  आनंदाचा  अनुभव  येतो,  तो  अवर्णनीय  असतो.''  अंबामातेचा  आशिर्वाद  घेऊन  मी  प्रवास  आरंभ  केला  आणि  थोडया  अंतरावर  असलेल्या  ''मरुत्वमलै''  या  गावी  येऊन  पोहोंचलो.  लंकेतील  राम-रावण  संग्रामात  लक्ष्मणास  इंद्रजीताची  शक्ति  लागून  तो  अचेतन  अवस्थेत  असताना,  श्री  हनुमंताने  संजीवनी  बुटीसाठी  द्रोणागिरी  पर्वत  उचलून  आणला  होता.  लक्ष्मण  संजीवनी  बुटीने  सजीव  झाल्यावर  हनुमंत  तो  पर्वत  स्वस्थानी  घेऊन  जात  असताना  त्याचा  एक  मोठा   तुकडा  येथे  पडला.  त्याचेच  नाव  ''मरुत्वमलै''  असे  पडले.  हे  स्थान  अत्यंत  रम्य  आहे.  येथे  अनेक  गुहा  असून  त्यात  सिध्द  पुरुष  गुप्तरुपाने  तपश्चर्या  करीत  असतात.  मी  साऱ्या  गुहेचे  दर्शन  घेण्यास  आरंभ  केला.  एका  गुहेच्या  आत  गेलो  तेव्हा  आत  एक  वाघ  शांत  बसलेला  दिसला.  त्याला  पहाताच  माझ्या  अंगात  कापरे  भरले  आणि  घाबरुन  मी  एकदम  ''श्रीपाद  !  श्रीवल्लभा  !''
असे  जोराने  ओरडलो.  त्या  निर्जन  अरण्यात  माझ्या  आरोळीचा  प्रतिध्वनी  तितक्याच  मोठ्या   आवाजात  ऐकू  आला.  त्या  आवाजाने  त्या  गुहेतून  एक  वृद्ध   तपस्वी  बाहेर  आले  आणि  म्हणाले  ''बाबारे,  तू  धन्य  आहेस.  या  अरण्यात  श्रीपाद  श्रीवल्लभ  या  नावाचा  प्रतिध्वनी  आला.  श्री  दत्त  प्रभूंनी  कलीयुगात  श्रीपाद  श्रीवल्लभ  या  नांवाने  अवतार  घेतल्याचे  योगी,  ज्ञानी,  परमहंस  लोकांनाच  माहीत  आहे.  तू  भाग्यवान  असल्याने  या  पुण्यस्थळी  आलास.  तुझ्या  सर्व  कामना  पूर्ण  होतील.  तुला  श्रीपाद  श्रीवल्लभांच्या  दर्शनाचा  लाभ  होईल.  ह्या  गुहेच्या  दाराजवळ  बसलेला  वाघ  एक  ज्ञानी  महात्मा  आहे.  त्याला  नमस्कार  कर.''  मी  अत्यंत  नम्रभावाने  त्या  वाघास  नमस्कार  केला.  त्या  वाघाने  लगेच  ॐ  काराचा  उच्चार  केला.  त्या  आवाजाने  सारा  मरुत्वमलै  पर्वत  दुमदुमला.  नंतर  त्या  व्याघ्राने  ''श्रीपाद  राजं  शरणं  प्रपद्ये''  असे  सुस्वरात  प्रभूंना  आळविले.  याच  वेळी  एक  चमत्कार  झाला.  त्या  वाघाच्या  ठिकाणी  एक  दिव्य  कांतीमान  पुरुष  प्रगट  झाला.  त्याने  त्या  वृद्ध तपस्व्यास  साष्टांग  प्रणिपात  केला  आणि  क्षणार्धात  आकाश  मार्गाने  निघून  गेला.  त्या  वृद्ध तपस्व्याने  मला  त्यांच्या  गुहेत  मोठ्या   आग्रहाने  नेले.  गुहेत  गेल्यावर  त्यांनी  केवळ  संकल्पाने  अग्नि  प्रज्वलित  केला.  त्यात  आहुती  देण्या साठी   लागणारे  पवित्र  साहित्य,  मधुर  फळे  यांची  निर्मिती  केली.  वैदिक  मंत्रोच्चारासह  या  पदार्थांची  अग्नित  आहुती  दिली.

ते  वृद्ध तपस्वी  सांगू  लगले,  ''या  कली  युगात  यज्ञ,  याग  सत्कर्मे  सारे  लुप्त  झाले  आहेत.  पंचभुतात्मक सृष्टीतून  सर्व  लाभ  करुन  घ्यायचा,  परंतु  त्या  दैवतांचे  मात्र  विस्मरण  करायचे  असा  मानवाचा  धर्म  झाला  आहे.  देवांची  प्रीति  प्राप्त  करण्यासाठी   यज्ञ  करावेत  व  त्यांना  संतुष्ट  करावे.  त्यांच्या  कृपाप्रसादानेच  प्रकृती  अनुकुल  होते.  प्रकृतीमधील  कोणत्याही  शक्तीचा   प्रकोप  मानव  सहन  करु  शकत  नाही.  प्रकृतीमधील  शक्तींची   मानवाने  यथायोग्य  मार्गाने  शांती  करावी,  नसता  अनेक  संकटे  उद्भवतात.  मानवाने  धर्माचरण  न  केल्यास  प्रकृति  शक्ती  त्याची  शिक्षा  यथाकाली  देते.  लोकहितासाठी   मी  हा  यज्ञ  केला  आहे.  या  यज्ञाचे  फल  स्वरूप  म्हणून  तुला  श्रीपाद  श्रीवल्लभ  स्वामींचे  दर्शन  होईल.  जन्मजन्मांतरीचे  पुण्य  फळास  आले  म्हणजे  असे  लाभ  घडतात.''  त्या  वृद्ध तपस्व्याच्या  मुखातून  वहाणाऱ्या  या  पवित्र  वाकगंगा   प्रवाहाने  मी  अगदी  भाराऊन  गेलो  आणि  अत्यंत  नम्रतेने  त्यांना  साष्टांग  दंडवत  घातले.  मी  त्या  तपस्व्याच्या  चरणी  प्रार्थना  केली  ''हे ऋषिवर,  मी  पंडित  नाही,  योगी  नाही,  साधक  नाही,  मी  एक  अल्पज्ञ  आहे.  माझ्या  मनातील  संदेहाची  निवृत्ती   करुन  आपण  आपला  वरदहस्त  माझ्या  मस्तकी  ठेवावा .''  त्या  महापुरुषाने  माझ्या  शंकेचे  समाधान  करण्याचा  मनोदय  दर्शविला.

मी  म्हटले  ''हे  सिध्द  मुनिवर्या,  मी  कन्यका  देवीचे  दर्शन  घेताना  देवीने  सांगितले  होते  की  कुरवपुरी  जाऊन  श्रीपाद  श्रीवल्लभ  स्वामींचे  दर्शन  घ्यावे.  मी  तेथे  जाण्यासाठी   निघालो  असताना  मार्गात  आपले  व  व्याघ्ररूपी  महात्म्याचे  दर्शन  झाले.  ते  कोण  होते  ?  तसेच  दत्तप्रभू  म्हणजे  कोण  ?  या  विषयी  कृपया  विस्तारपूर्वक  सांगावे  ''  तेव्हा  त्या  वृद्ध तपस्व्याने  सांगण्यास  सुरवात  केली. या  आंध्र  प्रांतातील,  गोदावरी  मंडलातील  अत्री  मुनींची  तपोभूमी  अशा  नांवाने  प्रसिध्द  असलेल्या  आत्रेयपूर  ग्रामात  एक  काश्यप  गोत्रीय  ब्राह्मण  कुटुंब  वास्तव्य  करीत  होते.  त्यांना  परमेश्वराच्या  कृपा  प्रसादाने  एका  पुत्राचा  लाभ  झाला.  ब्राह्मण  अत्यंत  विद्वान,  आचार  संपन्न  होता  परंतु  पुत्र  मात्र  मतिमंद  होता.  आई  वडिलांनी  त्याचे  नांव  व्याघ्रेश्वर  असे ठेवले .  व्याघ्रेश्वर  मोठा   होऊ  लागला.  परंतु  त्याच्या  बुध्दिची  वाढ  मात्र  होत  नव्हती.  पित्याने  त्याला  शिकविण्याचे  खूप  प्रयत्न  केले.  परंतु  त्यास  संपूर्ण  संध्यावंदन  सुध्दा  करता  येत  नसे.  एवढया  विद्वान  ब्राह्मणाचा  पुत्र  असा  अज्ञानी,  अशी  गावातील  लोकांची  सारखी  टोचणी  त्याला  अत्यंत  दु:खदायक  वाटे.  एका  ब्रह्ममुहूर्तावर  त्यास  स्वप्न  पडले,  त्यात  त्याला  एका  दिव्य  बालकाचे  दर्शन  झाले.  ते  बालक  आकाशातून  खाली  येत  होते.  त्याचे  चरण  कमल  भूमीस  लागताच  भूमी  सुध्दा  दिव्य  कांतीमान  झाली.  तो  बालक  हळू  हळू  पावले  टाकीत  व्याघ्रेश्वराकडे  आला  आणि  म्हणाला,  मी  असताना  तुला  भय  कशाचे  ?  या  ग्रामाचे  व  माझे ऋणानुबंध   आहेत.  तू  हिमालयातील  बदरिकारण्यात  जा.  तेथे  तुझे  सारे  शुभ  होईल.  एवढे  सांगून  तो  बालक  अंतर्धान  पावला.  त्या  दिव्य  बालकाच्या  संदेशानुसार  व्याघ्रेश्वर  शर्मा  हिमालयातील  बदरिकारण्यात  जाण्यास  निघाला.  मार्गात  त्यास  अन्नपाण्याची  काहीच  अडचण  पडली  नाही.  श्रीदत्त  कृपेने  त्याला  वेळेवर  अन्नपाणी  मिळे.  मार्गात  एक  कुत्रा  भेटला  व  तो  त्याच्या  बरोबर  बदरीवनापर्यंत  सोबत  होता.  या  प्रवासात  त्यांनी  उर्वशी  कुंडात  स्नान  केले.  याच  वेळी  एक  महात्मा  आपल्या  शिष्य  समुदायासह  उर्वशी  कुंडात  स्नाना साठी  आले.  व्याघ्रेश्वराने  त्या  गुरुवर्यांना  साष्टांग  नमस्कार  केला  आणि  माझे  शिष्यत्व  स्विकारावे  अशी  नम्र  प्रार्थना  केली.  त्या  महान  गुरुवर्याने  शिष्य  करुन  घेण्याचे  मान्य  केले  आणि  आश्चर्य  असे  की  तत्काळ  बरोबर  आलेले  ते  कुत्रे  अंतर्धान  पावले.  त्यावेळी  ते  महात्मा  म्हणाले  ''हे  व्याघ्रेश्वरा  तुझ्याबरोबर  आलेला  तो  श्वान  तुझ्या  पुर्वजन्मातील  केलेल्या  पुण्याचे  द्योतक  होते.  त्याने  तुला  आमच्या  स्वाधीन  करून  ते  अंतर्धान  पावले.  श्रीपाद  श्रीवल्लभ  स्वामींच्या  कृपे  मुळेच  तू  येथे  आलास  आणि  या  पुण्यप्रद  कुंडात  स्नान  करु  शकलास.  ही  नरनारायणाच्या  वास्तव्याने  पुनीत  झालेली  तपोभूमी  आहे.  यावर  व्याघ्रेश्वर  म्हणाला  हे  गुरुदेवा,  श्रीपाद  श्रीवल्लभ  कोण  आहेत  ?  त्यांनी  माझ्यावर  एवढी  कृपा  का  केली  ?  गुरुदेव  म्हणाले  ''ते  साक्षात  दत्त  प्रभूच  आहेत.  त्रेतायुगात  भारद्वाज  महर्षीनी  ''सावित्र  काठक  चयन''  नावाचा  महायज्ञ  श्री  क्षेत्र  पीठिकापुरम   येथे  संपन्न  केला  होता.  त्या  यज्ञ  प्रसंगी  शिव  पार्वतींना  आमंत्रित  केले  होते.  त्यावेळी  शिवानी  महर्षींना  आशिर्वाद  दिला  की  ''तुमच्या  कुलामध्ये  अनेक  महात्मा,  सिध्दपुरुष,  योगीपुरुष  अवतार  घेतील''  अनेक  जन्मांच्या  पुण्य  कर्माने  दत्तभक्तीचा   अंकुर  फुटतो  व  तो  पुढे  सातत्याने  वाढत  गेल्यास  श्रीपाद  श्रीवल्लभ  स्वामींचे  दर्शन  होते.  त्यांच्या  चरण  स्पर्शाचे,  संभाषणाचे  भाग्य  लाभते.  हे  व्याघ्रेश्वरा  तुझ्यावर  स्वामींची  कृपा  झाली  आहे.  मी  आता  माझ्या  गुरुदेवांच्या  दर्शनास  जात  आहे.  पुन:  एक  वर्षाने  येईन.  तुम्ही  तुमच्या  गुहेत  आत्मज्ञान  प्राप्तीसाठी   तपश्चर्या  करावी.''  असे  सांगून  ते  महान  गुरुदेव  द्रोणागिरी  पर्वताकडे  गेले.  व्याघ्रेश्वर  गुहेत  ध्यान  करु  लागला  परंतु  त्याचे  सारे  ध्यान  व्याघ्ररुपाकडेच  असे.  याचा  असा  परिणाम  झाला  की  त्याला  इच्छित  असलेले  वाघाचे  रूपच  प्राप्त  झाले.  एक  वर्षाचा  काळ  लोटला.  गुरुदेव  यात्रा  करुन  परत  आले.  त्यांनी  सर्व  गुहा  बघितल्या.  प्रत्येक  शिष्याच्या  एका  वर्षात  झालेल्या  प्रगतीचा  ते  आढावा  घेत  होते.  एका  गुहेच्या  आत  गेले,  तेथे  त्याना  एक  वाघ  ध्यानस्थ  बसलेला  दिसला.  त्यांना  अत्यंत  आश्चर्य  वाटले.  त्यांनी  अंतर्ज्ञानाने ओळखले  की  तो  वाघ  दुसरा  कोणी  नसून  व्याघ्रेश्वरच  आहे.  व्याघ्ररूपाचेच  सतत  ध्यान  केल्याने  त्याला  व्याघ्ररूपच  प्राप्त  झाले,  हे  त्यांनी  जाणले.  त्यांनी  त्याला  आशिर्वाद  देऊन  ॐ  काराचा  मंत्र  शिकविला  व  ''श्रीपाद  राजं  शरणं  प्रपद्ये''  हा  मंत्र  जपण्यास  सांगितला.  गुरूआज्ञेनुसार  व्याघ्रेश्वर  त्या  रूपातच  मंत्राचा  जप  करू  लागला.  वाघाच्या  रूपातच  त्याने  कुरवपूरला  प्रयाण  केले.  यथाकाली  तो  कुरवपूर  ग्रामाजवळ  येऊन  पोहोचला.  मध्ये  कृष्णा  नदी  वहात  होती.  तो  अलिकडील  तीरावर  बसून  ''श्रीपाद  राजं  शरणं  प्रपद्ये''  या  मंत्राचा  जप  करू  लागला.  श्रीपाद  श्रीवल्लभ  कुरवपूर  ग्रामात  आपल्या  शिष्यासह  बसले  होते.  ते  एकदम  उठले   आणि  माझा  परम  भक्तच्  मला  हाक  मारतो  आहे  असे  म्हणून  नदीच्या  पैलतीरास  येण्यास  निघाले.  ते  पाण्यातून  चालतांना  त्यांच्या  पदकमलांची  चिन्हे  पाण्यावर  उमटत  होती  व  ती  फारच  सुंदर  दिसत  होती.  स्वामी  पैलतीरावर  पोहोचल्यावर,  व्याघ्रेश्वराने  त्यांच्या  दिव्य  चरणांवर  आपले  मस्तक  ठेवून   अत्यंत  भक्तीभावाने   नमस्कार  केला.  स्वामींनी  अत्यंत  आनंदाने  त्या  वाघाचे  मस्तक  कुरवाळले  व  त्यावर  स्वार  होऊन  पाण्यातून  ते  कुरवपूरला  पोहोचले.  वाघावर  बसून  आलेले  बघून  सर्वांना  आश्चर्य  वाटले.  ते  वाघावरुन  उतरताच  त्या  वाघाच्या  शरीरातून  एक  दिव्य  पुरुष  बाहेर  आला.  त्याने  आपल्या  देहाचे  व्याघ्राजिन  (वाघाचे  कातडे)  स्वामींनी  आसन  म्हणून  स्वीकार  करावा  अशी  विनंती  केली.  तो  श्रींच्या  चरणी  अत्यंत  भक्तीभावाने   नतमस्तक  झाला.  त्याचे  अष्टभाव  जागृत   होऊन  प्रेमभावाने  त्याने  स्वामींच्या  चरणांवर  आपल्या  नेत्रातील  अश्रूंनी  अभिषेक  केला.  मोठ्या  प्रेमभराने  स्वामींनी  त्याला  उठवले  आणि  म्हणाले,  ''हे  व्याघ्रेश्वरा  !  तू  एका  जन्मात  अत्यंत  बलशाली  असा  मल्ल  होतास.  तेव्हा  तू  वाघांशी  युध्द  करून  त्यांना  अतिक्रूरतेने   वागवीत  होतास.  त्यांना  वेळेवर  अन्न  पाणी  सुध्दा  देत  नव्हतास.  त्यांना  साखळीने  बांधून  लोकांच्या  प्रदर्शनासाठी   ठेवीत   होतास.  या  दुष्कर्मामुळे  तुला  अनेक  नीच  जीव  जंतुंच्या  योनीत  जन्म  घ्यावा  लागला  असता  परंतु  माझ्या  अनुग्रहाने  ते  सारे  दुष्कर्म  हरण  झाले  आहेत.  तू  दीर्घकाळ  व्याघ्ररूपात  राहिल्यामुळे  तुला  इच्छेनुसार  वाघाचे  रूप  धारण  करता  येईल  व  सोडताही  येईल.  हिमालयात  कित्येक  वर्षापासून  माझी  तपश्चर्या  करणाऱ्या  महान  सिध्दांचे  तुला  दर्शन   होईल  आणि  आशिर्वादही  मिळतील.  योग  मार्गात  तू  अत्यंत  प्रज्ञावंत  होशील.''  असा  स्वामींनी  आशिर्वाद  दिला.

स्वामी  पुढे  म्हणाले  ''तू  हिमालयात  एक  वाघ  अत्यंत  शांत  असलेला  पाहिला  होतास  ना  !  तो  एक  महात्मा  आहे.  तपश्चर्या  करणाऱ्या  संत  पुरुषांना  सामान्य  लोक  व  इतर  वन्य  प्राण्यांपासून  त्रास  होऊ  नये  म्हणून  त्याने  ते  व्याघ्ररूप  धारण  केले  होते  व  तो  त्यांचे  संरक्षण  करीत  होता.  गुहेतील  तपश्चर्या  करणाऱ्या  संतांचे  परस्पर  वर्तमान  कळविण्याचे  काम  सुध्दा  तो  वाघ  मोठ्या  आनंदाने  करीत  असे,  ही  सगळी  दत्त  प्रभूंची  लीलाच.'' 
॥  श्रीपाद  श्रीवल्लभांचा  जय  जयकार  ॥











॥  श्री  गुरुवे  नम:  ॥  ॥  श्रीपादराजं  शरणं  प्रपद्ये  ॥ 

अध्याय  -2
 

सिध्द  योग्याचे  दर्शन-विचित्रपुरीचा  वृत्तान्त
    

मी  मरुत्वमलै  या  पुण्यस्थळी  घडलेल्या  रोमहर्षक  अनुभवाचे  मनन  करीत,  श्रीपाद  श्रीवल्लभ  स्वामींचे  स्मरण  करीत  पुढील  प्रवासास  प्रारंभ  केला.  मार्गात  अनेक  पुण्यात्म्यांचे,  थोर  संतांचे  दर्शन  घेत  मी  मार्गक्रमण  करीत  होतो.  या  प्रवासात  आश्चर्याची  गोष्ट  अशी  की,  कांही  न  मागता  भोजन  मिळत  असे.  पांडय  देशातील  कदंब  वनात  जाईपर्यंत  माझ्या  शरीराचे  वजन  क्रमा  क्रमाने  कमी  होत  होते.  या  प्रांतात  अतिजागृत   असे  शिवलिंग  होते.  त्याचे  मी  दर्शन  घेतले  व  विश्रांतीसाठी  शिवालयात  थोडा  वेळ  थांबलो.  नंतर  प्रवास  करण्यास  सुरुवात  केली.  मार्गात  मला  सिध्द  योगींद्र  नावाच्या  एका  महान  तपस्व्यांचा  आश्रम  लागला.  मी  आश्रमात  जाऊन  त्या  महापुरुषांचे  चरणी  नतमस्तक  झालो.  त्यांनी  मोठया  वात्सल्यपूर्ण  भावाने  माझ्या  डोक्यावर  हात  ठेवला  आणि  ''श्रीपाद  श्रीवल्लभ  दर्शन  प्राप्तिरस्तु''  असा  तोंडभरून  आशिर्वाद  दिला.  त्यांच्या  चरणस्पर्शाने  माझे  शरीर  कापसाप्रमाणे  हलके  वाटू  लागले  होते.  ते  महायोगी  मला  म्हणाले  ''तू  दर्शन  घेतलेले  ते  शिवलिंग  अत्यंत  जागृत   आहे''त्याची  कथा  सुध्दा  मोठी  रंजक  आहे.  देवेंद्राने  आपल्या  सामर्थ्याने  अनेक  राक्षसांना  मारून  टाकले.  परंतु  त्यांच्यातील  एक  राक्षस  पळून  गेला  व  त्याने  महादेवाची  तपस्या  करण्यास  सुरूवात  केली.  तो  ध्यानस्थ  असतांना  इंद्राने  त्या  राक्षसास  निर्दयतेने  ठार   केले.  त्याच्या  हत्येमुळे  इंद्राचे  सारे  तेज  लोप  पावले  व  तो  निस्तेज  दिसू  लागला.  या  पापाचे  क्षालन  करण्यासाठी त्याने  अनेक  तीर्थांचे  दर्शन  घेतले.  पांडय  देशातील  कदंब  वनात  तो  आला  आणि  काय  आश्चर्य  तेथील  शिवलिंगाच्या  प्रभावामुळे  तो  पूर्वीसारखा  कांतीमान,  तेजस्वी  दिसू  लागला.  त्याला  अत्यंत  आनंद  झाला  व  त्या  क्षेत्राचे  महात्म्य  जाणून  घेण्याची  उत्कंठा  लागली.  इंद्राने  ते  वन  मोठ्या   उत्सुकतेने  पाहिले.  तेव्हा  त्या  दिव्य  शिवलिंगाचे  दर्शन  झाले.  मोठ्या   भक्ति भक्ति भक्तीभावाने त्याने  त्याचे  पूजन-अर्चन  केले.  नंतर  त्या  स्वयंभू  लिंगावर  हे  सुंदरसे  देवालय  बांधले.  हे  इंद्राने  प्रतिष्ठापना  केलेले  शिवलिंग  समस्त  पापांचे  हरण  करणारे  असून,  अत्यंत  मंगल  दायक  आहे.  पुण्यवंतांनाच,  श्री  दत्त  प्रभूंच्या  भक्तांनाच   विनासायास  याचे  दर्शन  घडते.  मी  त्या  महायोग्याचे  हे  वक्तव्य   ऐकून  अत्यंत  रोमांचित  झालो  होतो.  मोठ्या श्रध्दाभावाने  त्यांचे  चरणकमली  मी  नमस्कार  केला.  तेव्हा  त्यांनी  त्या  शिवलिंगाचे  पुन्हा  एकदा  दर्शन  घेण्यास  सांगितले.  मी  त्यांच्या  आदेशानुसार  पुन्हा  त्या  वनात  गेलो  तेथे  मला  अतिशय  सुंदर  असे  शिवालय  दिसले  पण  मी  पाहिलेले  शिवमंदिर  हे  नव्हतेच.  मला  हे  मंदिर  श्रीमीनाक्षी  सुंदरेश्वराच्या  मंदिरासारखे  अप्रतिम  वाटले.  मी  मोठ्या   श्रध्देने  शिवलिंगाचे  दर्शन  घेतले  व  श्री  सिध्दयोगींद्राकडे  येण्यास  निघालो.  तेथील  परिसर  जनसमुदायाने  भरलेल्या  एका  शहरासारखा  वाटला.  श्रीयोगींद्राचा आश्रम  मात्र  सापडला  नाही.  मी  श्रीपाद  श्रीवल्लभ  स्वामींचे  मनांत  चिंतन  करून  पुढे  प्रवास  करण्यास  प्रारंभ  केला  तेव्हा  सूर्यास्त  होऊन  अंधकार  चोहिकडे  पसरला  होता.  मी  मार्गक्रमण  करीतच  होतो.  माझ्या  मागून  प्रकाशाचा  झोत  आल्यासारखे  वाटल्याने  मी  मागे  वळून  पाहिले.  माझ्या  मागे  तीन  शिरे  असलेला  एक  सर्प  येत  होता.  त्याच्या  मस्तकावर  तीन  दिव्य  मणी  होते.  त्यांचाच  प्रकाश  मला  मार्ग  दाखवीत  होता.  मी  अत्यंत  भयभीत  झालो  होतो.  माझ्या  हृदयाचे  स्पंदन  वाढत  होते.  मी  श्रीपाद  श्रीवल्लभाच्या  दिव्य  नामाचा  उच्चार  करीत  पुढे  चाललो  होतो.  त्या  सर्पाचा  उजेड  मार्ग  प्रदर्शन  करीत  होता.  शेवटी  मी  कसाबसा  श्रीसिध्दयोगींद्राच्या  आश्रमात  पोहोचलो.  तेव्हा  तो  दिव्य  सर्प  व  त्याचा  प्रकाश  तत्काल  अदृष्य  झाला.  श्रीसिध्दयोगींद्रानी  माझे  मोठ्या   प्रेमाने  स्वागत  केले  व  केळीच्या  पानात  भाजलेले  गरम  गरम  चणे  प्रसाद  म्हणून  दिले.  मी  ते  पोटभर  खाल्ले  परंतु  माझ्या  हृदयातील  धडधड  कमी  झाली  नव्हती.  तेव्हा  त्या  दयामूर्ती  योगिश्वरानी  मोठ्या   प्रेमभावाने  माझ्या  धडधडत्या  छातीवर  हात  फिरविला,  नंतर  तो  दिव्य  हस्त  माझ्या  मस्तकावरून  फिरविला  व  माझ्या  डोळयांनाहीं  प्रेमस्पर्श  केला.  त्या  करुणामय  स्पर्शाने  माझ्या  हृदयातील  सारी  धडधड  पार  पळून  गेली.  तसेच  मनातील  वाईट  विचार,  दुष्ट  संकल्प  बाहेर  निघून  जात  असल्याचे  जाणवले.  हृदय  एका  अनामिक  आनंदाने  भरून  गेले.
श्री  दत्तमहिमा,  श्रीपाद  श्रीवल्लभ  स्वामींचा 

अनुग्रह  संपादन  करण्यास  योग्यता 
यावेळी  सिध्दयोगी  म्हणाले  ''तू  अगोदर  दर्शन  घेतलेले  शिवलिंग  आणि  त्या  नंतर  दर्शन  घेतलेले  श्रीसुंदरेश्वराचे  मंदिर,  ही  दोन  वेगवेगळी  देवालये  नाहीत.  तुला  अशा  प्रकारचा  अनुभव  घडवून  आणावा  अशी  श्रीदत्तात्रेयांची  अनुज्ञा  होती.  म्हणून  तुला  अशी  वेगवेगळी  मंदिरे  दाखविली.  श्रीदत्ताच्या  कृपाप्रसादाने  काळास  मागे  नेऊन  देंवेंद्राने  प्रतिस्थापना  केलेली  मूर्ति,  त्या  वेळचा  परिसर  तुला  दाखविला.  तू  पाहिलेली  सारी  सृष्टी  (सृष्टी असे  समजणे  हा  एक  मायेचा  खेळच  आहे.  सर्व  कांही  चैतन्यस्वरूप  आहे.)  श्रीदत्तप्रभूंच्या  केवळ  संकल्पाने  भविष्य,  वर्तमानामध्ये  बदलु  शकते,  वर्तमान  काळ  भूतकाळात  व  भूतकाळ  वर्तमानात  परावर्तित  होऊ  शकतो.  भूतकाळातील  घडलेल्या  साऱ्या  घटना,  वर्तमान  काळात  घडत  असलेल्या  व  भविष्यकाळी  घडणाऱ्या  साऱ्या  घटना  श्रीदत्तप्रभूंच्या  संकल्पानुसार  घडतात.  एखादी  गोष्ट  घडणे  न  घडणे  अथवा  वेगळयाप्रकारे  घडण्यास  श्रीदत्तप्रभूंचा  संकल्पच  कारणीभूत  असतो.  ज्या  संकल्पाने  सृष्टीची  उत्पति,  स्थिती  व  लय  होतो,  त्या  महासंकल्पाचे  प्रणेते  प्रत्यक्ष  श्रीदत्तप्रभूच  आहेत.  तेच  सगुण  रूपात  पीठिकापुरम   या  क्षेत्री  श्रीपाद  श्रीवल्लभ  या  नावाने  अवतरले  आहेत.  तेथील  लोकांनी  त्यांचे  सत्यस्वरूप  जाणले  नाही,  परंतु  कुरवपूर  येथील  मासे  पकडणाऱ्या  कोळी  लोकांनी  त्यांच्यावर  नितांत  श्रध्दा  ठेवली   व  अल्पज्ञ  असूनही  ते  स्वामींच्या  कृपा  प्रसादाने  भवसागर  आनंदाने  पार  करून  गेले.  श्रीपाद  श्रीवल्लभांची  कृपा  संपादन  करण्यासाठी   आपल्यातील  अहंकार  पूर्णपणे  नाहिसा  झाला  पाहिजे.  ज्या  वेळेस  आपले  हृदय  काम,  क्रोध,  लोभ,  मोह,  मद,  मत्सर,  या  षड्रिपुतून  मुक्त  होऊन  शुध्द  होईल  त्यावेळी  स्वामींची  कृपा  होण्यास  मुळीच  विलंब  लागणार  नाही.’’ देवेंद्रांने  प्रतिष्ठापित  केलेले  ते  शिवलिंग  धनंजय  नावाच्या  एका  व्यापाऱ्याने  पाहिले.  त्याने  त्या  शिवलिंगाचा  महिमा  आपल्या  देशाचा  राजा  कुलशेखर  पांडयास  सांगितला.  ही  शिवाज्ञाच  मानून  त्याने  त्या  मंदिराचा  जीर्णोध्दार  केला  व  तेथे  एका  नगराची  स्थापना  करून  त्याला  ''मधुरानगर''  असे  नांव  दिले.  कुलशेखर  याचा  पुत्र  मलयध्वज  आपल्या  पित्याप्रमाणेच  ईश्वरभक्तच्  होता.  त्याने  संतानप्राप्तीसाठी   ''पुत्रकामेष्टी''  यज्ञ  केला  होता.  त्या  यज्ञकुंडातून  एक  तीन  वर्षाची  अतिशय  लावण्यवती  कन्या  अवतरीत  झाली.  तिला  पाहून  राजा  व  यज्ञ  करणारे  सारे  विप्र,  ऋषिगन   अत्यंत  आनंदित  झाले.  ही  कन्या  म्हणजेच  मीनाक्षीदेवी.  तिचा  विवाह  पुढे  सुंदरेश्वराबरोबर  झाला.  या  विवाहात  प्रत्यक्ष  भगवान  विष्णुंनी  कन्यादान  केले  होते.  लग्न  सोहळा  अत्यंत  थाटामाटाने  साजरा  झाला  होता.  शिवाच्या  जटेमधून  निघालेली  वेगवती  नदी,  मधुरानगरीतून  वहात  होती  व  तिच्या  परिसरातील  प्रदेश  अत्यंत  सुपिक  होऊन  निसर्ग  रम्य  झाला  होता.  श्रीसिध्दयोगींद्र  पुढे  म्हणाले  अरे  बाबा  !  सृष्टीमधील  प्रत्येक  वस्तुमधे  स्पंदन  होत  असते.  भिन्न  भिन्न  प्रकारच्या  स्पंदनामुळे  व्यक्ति -व्यक्ति   मध्ये  आकर्षण  तर  काही  मध्ये  विकर्षण  होते.  पुण्य  कर्म,  उत्तम  आचार  आणि  विचारांनी  स्थूल,  सुक्ष्म  आणि  कारण  देहात  पुण्यरूपी  प्रकंपन  होते.  पाप  कर्माने  पापरूपी  प्रकंपन  होते.  मनुष्याच्या  पुण्याईने  पुण्यशील  व्यक्तीचा   संग  अर्थात  सत्संगाची  प्राप्ति  होते,  पुण्यस्थलांचे  दर्शन  घडते,  पुण्य  कर्मात  आसक्ती  वाढून  पुण्याची  वृध्दी  होत  जाते  व  पापांचा  नाश  होतो.  या  सर्वांचे  फलस्वरूप  म्हणून  श्रीदत्तप्रभूवर  भक्ति   जडते.  अरे  बाबा  शंकर  भट्टा,  तुझ्यावर  श्री  श्रीपाद  वल्लभांची  अपार  कृपा  असल्यामुळेच  तू  येथे  येऊ  शकलास.

माझ्या  सद्भाग्याचे  मलाच  आश्चर्य  वाटत  होते.  श्री  श्रीपाद  श्रीवल्लभांच्या  दर्शनाची  तळमळ  दर  क्षणी  वाढत  होती.  केव्हा  एकदा  कुरवपुरी  जाऊन  श्रींच्या  चरणी  नतमस्तक  होईन  असे  झाले  होते.  अशा  स्थितीतच  मला  निद्रा  लागली  होती.  दुसऱ्या  दिवशी  सकाळी  उठलो  तर  आश्चर्याचा  धक्काच  बसला.  मी  एका  उंचश्या  टेकडीवरील  पिंपळाच्या  झाडाखाली  होतो.  जवळपास  कोणी  माणसे  नव्हती.  मी  रात्री  ज्या  श्रीसिध्दयोगींद्रांच्या  आश्रमात  राहिलो  होतो,  तो  आश्रम  दिसत  नव्हता.  मला  वाटले  रात्रभर  ज्या  आश्रमात  राहिलो,  श्री  सिध्दयोगीच्या वचनामृताचा   आस्वाद  घेतला,  तो  एक  भ्रम  होता  काय  ?  असे  नाना  विकल्प  मनांत  येऊ  लागले  तेव्हा  मी  आपले  सामान  आवरून  घेऊन  पुन्हा  प्रवास  सुरू  केला.  सकाळी  निघालेला  दुपार  झाली  तरी  चालतच  होतो.  थोडयाच  वेळात  एक  लहानसे  गाव  दिसले.  मला  अत्यंत  भूक  लागली  होती.  मी  ब्राह्मणांच्याशिवाय  इतर  कोणाचे  घरी  अन्न  ग्रहण  करीत  नसे.  त्या  गावात  एकही  ब्राह्मण  नव्हता.  ते  एक  गिरीजन  लोकांचे  गाव  होते.  त्यांचा  मुख्य  माझ्याजवळ  आला  व  म्हणाला  आमच्या  गावात  कोणीही  ब्राह्मण  नाही.  आम्ही  तुला  फळे  व  मध  देतो.  त्याप्रमाणे  त्या  वृध्द  गृहस्थाने  मला  फळे  व  मध  आणून  दिले.  मी  ते  खाणार  एवढयात  एक  कावळा  उडत  आला  आणि  माझ्या  डोक्यावर  येऊन  बसला  व  चोंचीने  डोक्यास  इजा  करू  लागला.  मी  त्याला  हाकलण्याचे  खूप  प्रयत्न  केले  परंतु  व्यर्थ  गेले.  तेवढयात  बाजूस  असलेल्या  झाडावरून  एकदम  चारपाच  कावळे  आले  ते  माझ्या  हातावर,  खांद्यावर  बसून  चोंचीने  हातापायांना जखमा  करू  लागले.  मी  तेथून  फळे,  मध  टाकून  पळालो.  तो  वृद्ध गृहस्थ  म्हणत  होता,  मी  कोणा  सिध्द  पुरुषाची  निंदा  केली  असेल  त्यामुळेच  हा  कावळयांचा  त्रास  भोगावा  लागला.  मला  आठवले ,  मी  त्या  सिध्दयोगींद्रा  बद्दल  मनांत  शंका  घेतली  होती,  त्याच  अपराधाची  ही  शिक्षा  होती.  माझे  शरीर  रक्तबंबाळ   झाले  होते.  मी  पळत  होतो,  कावळे  पाठलाग   करीतच  होते.  मी  श्रीपाद  श्रीवल्लभांची  मनोमन  प्रार्थना  केली  व  या  संकटातून  सुटका  करण्याची  विनंती  केली.  तेव्हा  मला  समोर  एक  औदुंबराचे  झाड  दिसले.  मी  त्या  झाडाखाली  विश्रांतीसाठी   बसलो,  त्यावेळी  मला  जाणवले  की  माझ्या  शरीरातून  एक  प्रकारचा  दुर्गंध  येत  आहे.  त्या  वासामुळे  जवळपास  असलेल्या  वारुळातून  सर्प  बाहेर  आले  आणि  दंश  करण्यास  सुरूवात  केली.  त्यांच्या  त्या  विषाने  मी  मृतप्रायच   झालो.  तोंडातून  फेस  येत  होता.  हृदयाचे  ठोके   मंद  गतीने  चालले  होते.  केव्हा  मृत्यू   येईल  ते  सांगता  येत  नव्हते.  सायंकाळ  झाली  होती.  धोबी  कपडे  धुऊन,  वाळवून,  कपडयाचे  गाठोडे   गाढवावर  ठेऊन   ते  घरी  जात  होते.  माझी  स्थिती  पाहून  त्यांना  दया  आली.  त्यांनी  मला  एका  गाढवावर  बसविले  व  त्यांच्या  गावातील  चर्म  वैद्याकडे  घेऊन  गेले.  त्या  वैद्याने  वनातील  काही  मुळयाचा  रस  काढून  मला  पिण्यास  दिला.  सर्पदंश  झालेल्या  जागेवर  थोडी  पाने  बांधली.  पिंपळाच्या  कोवळया  पानांचा  रस  काढून  तो  जखमेवर  लावला.  माझ्या  दोन्ही  कानात  पिंपळाच्या  पानाचे  देठ ठेवले   होते.  विष  जसे  जसे  पिंपळाच्या  पानात  उतरु  लागले,  तशा  तशा  वेदना  असह्य  होऊन  मी  ओरडू  लागलो.  विष  पूर्ण  उतरून  गेल्यावर  मला  बरे  वाटले.  ती  रात्र  मी  वैद्याच्या  घरीच  काढली.  तो  वैद्य  श्रीदत्तप्रभूंचा  भक्तच्  होता.  तो  रात्रीच्या  वेळी  आपल्या  कुटुंबियांसह  मधुर  आवाजात  दत्त  प्रभुंचे  भजन  गात  होता.  मी  पलंगावर  निजलो  होतो.  त्यांच्या  त्या  रसभरीत  कीर्तन-गायनाने  माझे  हृदय  श्रीदत्तप्रभूंच्या  अनुकंपेने  भरून  आले  होते.  त्या  वैद्याने  केलेल्या  उपचारांनी  मी  पूर्ण  बरा  झालो  होतो.  त्याचे  हे  उपकार  कसे  फेडावे  हे  मला  समजत  नव्हते.  भजन  संपवून  तो  वैद्य  माझ्याकडे  आला.  त्याचे  नेत्र  करुणारसाची  जणू  वर्षाच  करीत  होते.  तो  म्हणाला,  ''माझे  नांव  वल्लभदास  आहे.  मी  चर्मकारांचा  वैद्य  आहे.  मी  नीच  जातीचा  असलो  तरी  मी  जाणतो  की  तुम्ही  श्रीपाद  श्रीवल्लभांच्या  दर्शनासाठी  निघाला  आहात.  तुम्हाला  कावळयाकडून  त्रास  झाला  व  सर्पदंश  का  झाला  ते  सुध्दा  मला  माहित  आहे.  आपले  नांव  शंकर  भट्ट  आहे  ते  मी  जाणतो.''

त्याच्या  या  अचूक  वक्तव्याने  मी  अवाकच  झालो.  मला  वाटले  त्या  वैद्यास  ज्योतिष  शास्त्राचे  ज्ञान  असावे.  हा  विचार  मनात  येताच  वल्लभदास  म्हणाला,  ''मी  ज्योतिषी  नाही.  श्रीपीठिकापुरम  म्हणजे  पंडितांचे  माहेर  घर.  ''सांगवेदार्थ  सम्राट''  अशी  पदवी  मिळविलेले  श्री  मल्लादी  बापन्ना  अवधानलु  यांनी  सुध्दा  या  पुण्यभूमीत  निवास  केला  होता.  परंतु  हे  प्रगाढ  वेदज्ञान  असलेले  पंडित  अहंकारामुळे  श्रीपाद  श्रीवल्लभाचे  खरे  स्वरूप  जाणू  शकले  नाहीत.  शुष्क  वेदांत,  अर्थहीन  तर्क-वितर्क  करणारे  पंडित,  श्रीपाद  श्रीवल्लभाच्या  कृपेस  पात्र  होऊ  शकले  नाहीत.  तुला  टोचून  जखमा  केलेले  कावळे  हे  पूर्व  जन्मीचे  पीठिकापुरम  येथील  महा  अहंकारी  पंडितच  होते.  त्यांनी  आपले  जीवन  श्री  श्रीपाद  श्रीवल्लभांचे  महात्म्य  न  जाणता  आपल्या  ज्ञानाच्या  अहंकारातच व्यर्थ  घालविले.  ते  मृत्यूनंतर  स्वर्ग  लोकास  गेले.  तेथे  इंद्राने  त्यांचा  वेदपंडित  घनपाठी  म्हणून  सत्कार  केला.  परंतु  जेव्हा  त्यांना  भूक  लागली  व  जीव  भुकेने  व्याकूळ  झाला,  तेव्हा  त्यांना  खाण्यासाठी  कोणी  काहीच  दिले  नाही.  इंद्र  म्हणाला,  तुम्ही  पृथ्वीवर  असताना  दान  धर्म  केला  असता  तर  एका  दाण्यासाठी  हजार  दाणे  आमच्या  कडून  मिळाले  असते.  परंतु  तुम्ही  कोणाला  काही  दान  दिले  नाही.  तेव्हा  तुम्हाला  आम्ही  काहीच  देऊ  शकत  नाही.  तुम्ही  या  लोकात  स्वेच्छेने  कितीही  काळ  राहु  शकता.''  परंतु  अन्न  पाण्यावाचून  इतर  स्वर्गसुखे  खरोखर  शिक्षे  सारखी  होती.  इंद्र  पुढे  म्हणाला  ''हे  पंडितांनो  तुम्ही  पादगये  सारख्या  पवित्र  स्थळी  राहून  सुध्दा  श्रध्दा, भक्ति   निष्ठेने  आपल्या  पितरांना  पिंडदान  केले  नाहीत.  आई  वडिलांचा  योग्य  तो  सन्मान  न  करता  त्यांच्या  औषध  पाण्यासाठी एवढा  खर्च  झाला  असे  कृतघ्नतेचे  उद्गार  तुम्ही  वारंवार  काढले.श्रीपाद  श्रीवल्लभांना  श्रीदत्तप्रभुचे  अवतार  न  मानण्या  एवढे  तुम्ही  अंध  झालात.  श्रीपाद  श्रीवल्लभांच्या  नामस्मरणाने  पवित्र  झालेल्या  भक्ताचे  रक्त   प्राशन  केल्यावरच  तुम्हास  उत्तम  गती  लाभेल.''
वल्लभदास  सारी  कहाणी  सांगत  होता.  तो  म्हणाला  ''शंकरभट्टा  !  हे  कावळे,  ते  सर्प  पूर्व  जन्मीचे  अहंकारी  पंडित  होते.  त्यांनी  तुझे  रक्त   चाखले  व  उत्तम  गतीस  प्राप्त  झाले.  वल्लभदास  पुढे  म्हणाला''  ब्राह्मण  सत्यनिष्ठ  असावा,  क्षत्रिय  धर्मबध्द  असावा.  वैश्यांनी  व्यवसाय,  व्यापार,  गाईचे  रक्षण,  क्रय  विक्रय  आदि  व्यवहार  करावे.  शूद्रानी  प्रेमस्वरूप  राहून  सेवा  करावी.  भगवंताच्या  भक्तीसाठी  मात्र  वर्ण,  जात,  कुळ,  श्रीमंत,  गरीब,  स्त्री,  पुरुष  असा  भेदभाव इथे  नसतो.  भगवंत  भक्ताचा  केवळ  प्रेमभाव,  श्रध्दा,  दृढ  विश्वास  पाहतो.  मानव  कोणत्याही  वर्णात  जन्मला  तरी  त्याने  स्वधर्मानुसार  कर्म  करावे.

वल्लभदास  पुढे  म्हणाला,  तू  लहान  असतांना  विष्णूमूर्तीचे  ध्यान  श्लोकाचे  पठण  करीत  होतास,  त्यावेळी  तू  विनोदाने  एका  श्लोकाचा  चूक  अर्थ  आपल्या  मित्रांना  सांगत  होतास,  तो  श्लोक  असा  होता  ''शुक्लांबरधरं  विष्णुं  शशिवर्णं  चतुर्भुजम्॥  प्रसन्न  वदनं  ध्यायेत्  सर्व  विघ्नोऽपशांतये.॥''

याचा  विनोदार्थ  केलेला  अर्थ  श्रीदत्तप्रभूंना  आवडला  नाही.  त्याची  शिक्षा  म्हणून  तुला  धोबी  लोकांनी  गाढवावर  बसवून  आणले.  शेवटी  चर्मकारांच्या  गावात  पोहोचविले  .  तुझी  अशी  दुर्गती  करण्यामागे  श्रीपाद  श्रीवल्लभांचा  विनोदाबरोबर  तुला  कांही  पाठ  शिकवून  तुझ्यातील  अहंकार  दूर  करण्याचा  मानस  होता.  त्या  दयाघन  श्रीगुरु  श्रीपाद  श्रीवल्लभांची  प्रत्येक  क्षणी  आपल्यावर  दृष्टी  असते,  ही  गोष्ट  ध्यानात  असू  दे.

श्री  वल्लभदासांच्या  हितोपदेशाने  मी  कृतकृत्य  झालो.  माझ्यातील  ब्राह्मण  असल्याचा  अहंकार  नाहिसा  झाला.  मी  वल्लभदासांचा  पाहुणचार  स्वीकारला.  दोन  तीन  दिवस  राहून  पुढे  चिदंबरला  जाण्यास  निघालो.चिदंबरला  पोहोचण्याच्या  अगोदर  विचित्रपूर  नावाचे  गांव  लागले.  त्या  गावाच्या  नावाप्रमाणे  राजाही  विचित्र  वर्तन  करणारा  होता.  त्या  राजास  एक  मुलगा  होता.  परंतु  तो  मुका  असल्याने  राजा  नेहमी  उदास  असे.  त्याला  वाटे  की  ब्राह्मणांनी  लोपभूइष्ट  (यज्ञ  कर्मलोप)  असा  यज्ञ  केल्याने  त्याचा  मुलगा  मुका  झाला.  तो  ब्राह्मणांचा  अपमान  करून  त्यांना  गाढवावर  बसवून  त्यांची मिरवणूक  काढीत  असे.  ब्राह्मणांना  दान  म्हणून  राजगिऱ्याची  भाजी  देत  असे.  त्या  राज्यात  ब्राह्मण  आपला  अहंकार  विसरून  अगदी  दयनीय  स्थितीस  प्राप्त  झाले  होते.  एका  विद्वान  ब्राह्मणास  राजाने  मूक  भाषेवर  ग्रंथ  लिहिण्याची  आज्ञा  केली  होती.  त्या  राजाज्ञेनुसार  ते  राजगुरु  ब्राह्मण  मूक  भाषेवर  संशोधन  करु  लागले  होते. 
शंकर  भट्ट  आणि  राजे  महाराजांचा  संवाद
राजाच्या  सैनिकांनी  मला  आपण  ब्राह्मण  आहात  का  असा  प्रश्न  विचारला.  मी  होकारार्थी  मान  हालविताच  ''आपणास  आमच्या  महाराजांचे  आग्रहाचे  आमंत्रण  आहे''  असे  म्हणून  राजवाडयात  येण्याची  विनंती  केली.  मी  त्यांच्याबरोबर  राजा  समोर  उभा  राहिलो.  मला  भीतीने  घाम  सुटला  होता.  मी  तेव्हा  मनोमन  श्री  श्रीपाद  वल्लभांची  प्रार्थना  केली  व  नामस्मरण  करू  लागलो.  राजाने  मला  पहिला  प्रश्न  विचारला,''  तेवढयास  एवढे  तर  एवढयाला  किती  होईल  ?  मी  गंभीरपणे  उत्तर  दिले  ''एवढयाला  एवढेच''  माझ्या  उत्तराने  राजाला  आश्चर्य  वाटले  व  तो  म्हणाला  ''महात्मन्  आपण  मोठे  पंडित  आहात.  आपल्या  दर्शनाने  मी  धन्य  झालो.''  राजाने  आपल्या  पूर्वजन्मातील  आठवणी  सांगण्यास  सुरूवात  केली.  तो  त्या  जन्मी  एक  ब्राह्मण  होता.  त्याच्या  घरी  राजगीरा  पिकत  असे.  ती  भाजी  तो  सर्वांना  मुक्तहस्ताने  देत  असे.  त्याच्या  सहाध्यायी  ब्राह्मणा  कडून  यजमानांच्या  घरी  पूजा,  अर्चा,  अभिषेक  आदि  करवून  घेत.  यजमानांनी  दिलेली  दक्षिणा  मात्र  स्वत:  घेऊन  अगदी  अल्पशी  त्या  गरीब  ब्राह्मणास  देत  असत.  त्यांच्या  घरची  राजगिऱ्याची  भाजी  सुध्दा  फुकटच  घेत.  कालचक्र  फिरत  गेले.  दुसऱ्या  जन्मी  तो  गरीब  ब्राह्मण,  राजा  म्हणून  जन्मला  आणि  त्याला  त्रास  देणारे,  लुबाडणारे  ब्राह्मण  दुसऱ्या  जन्मी  सुध्दा  त्याच  राज्यात  ब्राह्मण  म्हणून  जन्मले.  तो  राजा  पूर्वीच्या  जन्मी  दिलेल्या  राजगिऱ्याच्या  भाजीच्या  दानाच्या  कैकपट  या  जन्मात  दान  देत  होता.  त्याला  अचाट  दानाचे  फळ  काय  मिळेल  याचे  उत्तर  हवे  होते.  मी  राजाला  म्हणालो  ''महाराज  राजगिऱ्याची  भाजी  कितीहि  दान  केली  तरी  तिच्या  शंभर  पटीने  तीच  भाजी  आपणास  मिळेल.  सध्याच्या  परिस्थितीत  रत्न,  मणि,  सोने  आदि  दान  करणे  तुझ्या  हिताचे  आहे.''  माझ्या  उत्तराने  राजास  आनंद  झाला.  आता  दुसरा  प्रश्न  मूक  भाषेचा  होता.
राजगुरुंनी  माझी  परिक्षा  घेण्यासाठी आपली  दोन  बोटे  दाखवून  एक  का  दोन  असे  खुणेनेच  विचारले.  त्यांनी  मला  एकटाच  आलास  का  सोबत  कोणी  आहे,  असा  प्रश्न  वाटून  मी  एकटाच  आलो  असे  दर्शाविण्यास  एकच  बोट  दाखवून  खुणेनेच  उत्तर  दिले.  त्यानंतर  त्यांनी  तीन  बोटे  दाखविली.  तीन  संख्या  पहाताच  मला  दत्तात्रेयांची  त्रैमूर्ति  आठवली.  तुम्ही  दत्तभक्त   आहात  का,  असा  प्रश्न  वाटला.  मी  भक्ति  ही  गुप्त  असावी  असे  जाणून  हाताची  मूठ  बंद  करून  दाखविली  व  भक्ति   हा  विषय  अंतरंगाचा  आहे  असे  सांगितले.  नंतर  राजगुरुंनी  गोड  पदार्थाचा,  मिठाईचा  भंडारच  मला  देत  असल्याची  खूण  म्हणून  तसे  हातवारे  केले,  परंतु  मी  हाताने  ते  नाकारले  व  माझ्या  जवळ  असलेले  पोहे  पुरचुंडीतून  काढून  त्यांना  दिले.  मला  गोड  पदार्थापेक्षा  पोहेच  जास्त  आवडतात,  तुम्ही  सुध्दा  यांची  चव  पाहू  शकता,  असा  माझा  भाव  होता.  माझ्या  उत्तरांनी  राजगुरु  अतिप्रसन्न  झाले  आणि  राजास  म्हणाले  ''राजा  हा  फार मोठा  पंडित  आहे.  हा  मुक्यांच्या  भाषेत  सुध्दा  मोठा  पंडित  आहे.''
दोन  परिक्षांमध्ये  तर  मी  सफल  झालो  होतो.  आता  तिसरी  परिक्षा  डोळयासमोर  भेडसावित  होती.  राजगुरुंनी  सांगितले  ''चमक''  मधील  श्लोक  वाचून  त्याचा  अर्थ  सांगावा.  मी  श्रीपाद  श्रीवल्लभांचे  मनोमन  स्मरण  करीत  एक  एक  श्लोक  वाचला  व  त्याचा  अर्थ  सभेस  समजावून  सांगितला.  मी  सांगितलेला  अर्थ  असा  होता  ''एकाचमे''  म्हणजे  एक.  ''तिस्रश्चमे''  म्हणजे  एकाला  तीन  जोडले  असता  चार  होतात  व  त्यांचे  वर्गमूळ  दोन  येते.  ''पंचचमे''  म्हणजे  चारात  पाच  मिसळल्यास  नऊ  होतात  त्याचे  वर्गमूळ  तीन  येते.  ''सप्तचमे''  वर  आलेल्या  नऊ  मध्ये  सात  मिसळल्यास  सोळा  येतात  व  त्याचा  वर्गमूळ  चार  येतो.  ''नवचमे''  म्हणजे  वरील  सोळा  संख्येत  नऊ  मिसळले  असता  पंचविस  येतात  व  त्याचा  वर्गमूळ  पाच  येतो.  ''एकादशचमे''  म्हणजे  वरील  पंचविस  मध्ये  अकरा  मिसळल्यास  छत्तीस  येतात  व  त्याचे  वर्गमूळ  सहा  येते.  ''त्रयोदशचमे''  म्हणजे  वरील  छत्तीस  संख्येत  तेरा  मिसळल्यास  एकोणपन्नास  येतात  व  त्याचे  वर्गमूळ  सात.  ''पंचदशचमे''  म्हणजे  वरील  एकोणपन्नास  संख्येत  पंधरा  मिसळले  असता  चौंसष्ट  होतात  व  त्याचे  वर्गमूळ  आठ   येते.  ''सप्तदशचमे''चा  अर्थ  वरील  चौंसष्ट  संख्येत  सतरा  मिसळले  असता  येणारी  संख्या एकयांशी   आणि  त्याचे  वर्गमूळ  नऊ  ''नवदशचमे''  म्हणजे  वरील  एकयांशी  संख्येत  एकूणीस  मिसळले  असता  शंभर  होतात  व  त्याचे  वर्गमूळ  येते  दहा.  ''एकविंशतिश्चमे''  म्हणजे  वरील  शंभर  या  संख्येत  एकविस  मिळविल्यास  संख्या  एकशे  एकवीस  होते  व  त्याचे  वर्गमूळे  येते  अकरा.''  ''त्रयोविंशतिश्चमे''  वरील  एकशे  एकविस  संख्येत  तेवीस  मिळविले  असता  एकशे  चव्वेचाळीस  होतात,  त्याचे  वर्गमूळ  येते  बारा.  ''पंचविंशतिश्चमे''  याचा  अर्थ  वरील  एकशे  चव्वेचाळीस  संख्येत  पंचेवीस  मिसळले  असता  एकशे  एकोणसत्तर  होतात  व  त्याचे  वर्गमूळ  येते  तेरा.  ''सप्तविंशतिश्चमे''  याचा  अर्थ  वरील  एकशे  एकोणसत्तर  मध्ये  सत्तावीस  मिसळले  असता  एकशे  शहाण्णव  होतात  व  त्याचे  वर्गमूळ  येते  चौदा.  ''नवविंशतिश्चमे''  म्हणजे  वरील  एकशे  शहाण्णव  मध्ये  एकोणतीस  मिसळल्यास  दोनशे  पंचविस  होतात  व  त्याचे  वर्गमूळ  पंधरा  येते. 

''एकत्रिंशच्चमे''  याचा  अर्थ  वरील  दोनशे  पंचविस  मध्ये  एकतीस  मिळविले  असता  दोनशे  छप्पन्न  येतात  आणि  त्याचे  वर्गमूळ  येते  सोळा.  ''त्रयस्त्रिंशच्चमे''  म्हणजे  वरील  दोनशे  छप्पन  मध्ये  तेहतीस  मिसळले  असता  दोनशे  एकोण  नव्वद  येते,  त्याचे  वर्गमूळ  येते  सतरा.  माझे  हे  प्रवचन  मलाच  आश्चर्यकारक  वाटले.  मी  हे  जे  बोललो  ते  सर्व  सृष्टीच्या  परमाणूचे  रहस्य  होते.  ते  कणाद  ऋषींना  माहित  होते.  परमाणूंच्या  सूक्ष्म  कणांच्या  भेदामुळेच  विविध  धातुची  निर्मिती  होते.  माझे  प्रवचन  दरबारातील  सर्वानाच  खूप  आवडले.  राजाच्या  सर्व  प्रश्नांना  समर्पक  उत्तरे  दिल्यामुळे  व  श्री  श्रीपाद  श्रीवल्लभांच्या  कृपेने  मी  त्या  विचित्रपूर  नगरातून  सुरक्षितपणे  बाहेर  पडलो.
॥  श्रीपाद  श्रीवल्लभांचा  जय  जयकार  ॥






॥  श्री  गुरुवे  नम:  ॥  ॥  श्रीपादराजं  शरणं  प्रपद्ये  ॥ 

अध्याय  -3
 


पळनीस्वामी  दर्शन  -  कुरवपुरचे
श्रीपाद  श्रीवल्लभ  स्वामींचा  स्मरण  महिमा
    

विचित्रपूर  सोडून  मी  तीन  दिवस  प्रवास  केला.  मार्गात  अन्न-पाण्याची  व्यवस्था  ईश्वरकृपेने  होत  होती.  चवथ्या  दिवशी  अग्रहारपूरला  पोहोंचलो.  तेथील  एका  ब्राह्मणाच्या  घरासमोर  उभे  राहून  ''ॐ  भिक्षांदेहीं''  असे  म्हणून  भिक्षा  मागितली.  त्या  घरातून  एक  अतिशय  क्रोधायमान  झालेली  एक  स्त्री  बाहेर  आली.  ती  म्हणाली,  भात  नाही,  लात  नाही.  मी  थोडा  वेळ  तसाच  दारासमोर  उभा  राहिलो.  थोडयाच  वेळात  त्या  घरातील  गृहस्थ  बाहेर  आले  आणि  म्हणाले  माझ्या  पत्नीने  रागाने  माझ्या  डोक्यावर  मातीचे  मडके  फोडले  व  आता  त्याच्या  किंमती  एवढे  पैसे  आणून  द्या  असे  म्हणून  घरातून  बाहेर  घालविले.  मी  आपणाबरोबर  येतो.  दोघे  मिळून  भिक्षा  मागू  या.  मी  म्हटले  समस्त  जीवांना  अन्न-पाणी  पुरविणारे  सर्वव्यापी  असलेले  श्रीदत्तप्रभूच  आहेत.  समोरच्या  पिंपळाच्या  झाडाखाली  बसून  आपण  त्यांचे  चिंतन  करु  या.  आम्ही  दोघे  त्या  विशाल  पिंपळाच्या  छायेत  बसून,  श्री  दत्तप्रभूंचे  भजन  करू  लागलो.  भूक  लागल्याने  आवाज  सुध्दा  अगदी  बारीक  येत  होता.  इतक्यात  तेथे  विचित्रपूरच्या  राजाचे  दूत  आले.  ते  म्हणाले  आमच्या  युवराजांना  बोलता  येऊ  लागले  आहे.  राजेसाहेबांनी  तुम्हाला  घेऊन  या  अशी  आज्ञा  केली  आहे.  आपण  आमच्याबरोबर  घोडयावर  चलावे.  मी  म्हणालो  ''मी  एकटा  येणार  नाहीं.  माझ्या  बरोबर  माझ्या  मित्रास  येऊ  देत  असल्यास  मी  येईन.''  त्या  राजदूतांनी  माझी  विनंती  मान्य  केली.  आम्हा  दोघांस  घोडयावर  बसवून  ते  दूत  राजवाडयाकडे  निघाले.  त्या  गावचे  लोक  आश्चर्याने  पहात  होते.  राजवाडयात  पोहोचल्यावर,  राजाने  आमचे  स्वागत  केले  व  म्हणाला,  ''तुम्ही  गेल्यानंतर  आमचा  युवराज  एकाएकी  बेशुध्द  पडला.  आम्ही  घाबरुन  गेलो.  राजवैद्यांना  बोलावले,  परंतु  ते  येण्याच्या  अगोदरच  युवराज  शुध्दीवर  आला.  त्याने  डोळे  उघडून  ''दिगंबरा  दिगंबरा  श्रीपाद  वल्लभ  दिगंबरा''  अशा  मंत्राचा  उच्चार  करण्यास  सुरूवात  केली.  थोडया  वेळाने  युवराजाने  सांगितले  की  तो  बेशुध्द  असताना  एक  सोळा-सतरा  वर्षाचा  अजानबाहु  अत्यंत  दैदिप्यमान  कांतीचा  एक  यती  आला.  त्याने  युवराजाच्या  जिभेवर  विभूती  घातली  आणि  त्याच  क्षणी  त्याला  वाचा  प्राप्त  झाली.  राजाने  विचारले  ते  यती  कोण  होते  ?  श्रीदत्तप्रभूंशी  त्याचे  काय  नाते  आहे  ?  हे  सारे  विस्तार  पूर्वक  सांगावे.''
मी  सांगितले  युवराजाला  दिसलेले  सोळासतरा  वर्षाचे  दिव्य  स्वरूप  यती,  श्री  श्रीपाद  श्रील्लभ  होते.  त्यांनीच  युवराजास  वाचा  प्रदान  केली.  ते  श्रीदत्तप्रभूंचे  कलियुगातील  अवतार  आहेत.  त्यांच्या  दर्शनासाठीच  मी  कुरवपूर  क्षेत्री  जात  आहे.  मार्गात  अनेक  पुण्य  पुरुषांचे  संत  महात्म्यांचे  दर्शन  होत
आहे.  दरबारातील  सर्व  लोकांनी  श्रीपाद  श्रीवल्लभांचा  एकमुखाने  जयजयकार  केला.  राजाने  मला  व  माझ्याबरोबर  आलेल्या  त्या  गृहस्थास  सुवर्णमुद्रा  दान  दिल्या.  त्या  घेऊन  आम्ही  निघालो.  राजाच्या  राजगुरुने  म्हटले  ''आपणामुळे  आमचा  ज्ञानोदय  झाला  व  दत्तमहिमा  कळला.  आम्ही  आतापर्यंत  वैष्णव  व  शैव  या  भेदात  पापच  करीत  होतो.  आपणच  आम्हास  खरा  मार्ग  दाखविला.''  आमच्याबरोबर  माधव  नंबुद्री  नावाचा  एक  ब्राह्मण  सुध्दा  कुरवपुरास  श्री  स्वामींच्या  दर्शनास  निघाला.  आम्ही  तिघे  विचित्रपूर  सोडून  अग्रहारपूर  या  गावी  आलो.  माझ्याबरोबर  आलेल्या  अग्रहारपूरच्या  गृहस्थाने ,  राजाने  दिलेल्या  सुवर्ण  मुद्रा  आपल्या  पत्नीस  दिल्या.  ती  अत्यंत  आनंदित  झाली.  तिने  सर्वांना  यथेच्छ  भोजन  दिले.  त्यानंतर  ती  श्री  श्रीपाद  श्रीवल्लभांची  भक्त  झाली.

मी  आणि  माधव  नंबुद्री  चिदंबरमकडे   जाण्यास  निघालो.  सध्याच्या  गुंटूर  (गर्तपुरी)  मंडलातील  नंबुरु  गावात  अनेक  विद्वान  ब्राह्मणांचे  वास्तव्य  होते.  मळियाळ  देशातील  राजाने  नंबुरु  येथील  अनेक  विद्वान  पंडितांना  आपल्या  देशात  बोलावून  त्यांना  राजाश्रय  दिला  होता.  हेच  ब्राह्मण  नंबुद्री  ब्राह्मण  या  नांवाने  प्रसिध्द  झाले.  हे  आचार  संपन्न  असून  परमेश्वरावर  दृढ  श्रध्दा  असलेले  वेदसंपन्न  ब्राह्मण  होते.  परंतु  माझ्याबरोबर  असलेला  माधव  नंबुद्री  लहानपणीच  माता-पित्याच्या  छत्राला  मुकला  असल्याने  निरक्षर  होता.  त्याची  श्री  दत्तप्रभुंवर  मात्र  गाढ  श्रध्दा  होती.

चिदंबरमला  गेल्यावर  तेथे  श्री  पळनीस्वामी  नांवाचे  एक  सिध्द  महात्मा  असल्याचे  कळले.  त्यांच्या  दर्शनासाठी  पर्वतावरील  त्यांच्या  एकांतात  असलेल्या  गुहेकडे  गेलो.  गुहेच्या  द्वाराजवळ  जाताच  पळनीस्वामींनी  आम्हाला  बघून  ''माधवा  !  शंकरा  !  दोघे  मिळून  आलात  !  आमचे  अहोभाग्य''  असे  म्हणाले.  प्रथम  भेटीतच  नाव  माहित  नसताना  आम्हास  नांवाने  हाक  मारणारे  हे  सिध्द  महात्मे  आहेत,  यात  तिळमात्र  संशय  नव्हता.  स्वामी  म्हणाले  ''बाबांनो,  श्रीपाद  श्रीवल्लभांच्या  आज्ञेनुसार  मी  हा  देह  त्यागून  दुसऱ्या  तरुण  अशा  देहात  प्रवेश  करणार  आहे.  ती  वेळ  आता  आली  आहे.  मी  या  शरीरात  तीनशे  वर्षे  आहे.  या  देहाचा  त्याग  करुन  नूतन  शरीरात  पुन्हा  तीनशे  वर्षे  रहावे  अशी  श्रीपादांची  आज्ञा  झाली  आहे.  जीवनमुक्त  झालेले  जनन-मरण  रूप  सृष्टी  क्रमाला  अतित  असलेले  आणि  समस्त  सृष्टीला  चालविणारा  महासंकल्प  म्हणजेच  श्री  श्रीपाद  श्रीवल्लभ  !  पुढे  पळनी  स्वामी  म्हणाले,  ''अरे  शंकरा  !  तू  विचित्रपुरीतील  कणाद  महर्षिंच्या  कणाद  सिध्दांता  विषयी  बोलला  होतास,  त्याचे  वर्णन  करुन  सांग.''
कणाद  महर्षिंचा  कण  -  सिध्दांत 
स्वामींच्या  प्रश्नाला  उत्तर  देताना  मी  म्हणालो  ''स्वामी  मला  क्षमा  करा.  कणाद  महर्षिच्या  विषयी  व  त्यांच्या  सिध्दांताच्या  बाबतीत  मला  फारच  थोडी  माहिती  आहे.  मी  सांगितलेली  माहिती  ही  श्री  दत्तप्रभुनीच  माझ्या  तोंडून  वदविली  होती.  हे  तर  स्वामींना  ज्ञात  आहेच''  करुणास्वरूप  पळनी  स्वामींनी  कण  सिध्दांत  सांगण्यास  सुरूवात  केली.  ते  म्हणाले,  ''समस्त  सृष्टी  सुध्दा  परम  मूल  अशा  अणूंनी  निर्माण  झाली  आहे.  त्या  परमाणूंपेक्षा  सूक्ष्म  अशा  कणांच्या  अस्तित्वाने,  विद्युत  शक्ति  उद्भवते.  हे  सूक्ष्म  कण  महावेगाने  आपापल्या  कक्षेमध्ये  परिभ्रमण  करीत  असतात.  स्थूल  सूर्याभोवती  ग्रह  आपल्या  भिन्न  भिन्न  कक्षेतून  परिभ्रमण  करीत  असतात.  त्याचप्रमाणे  हे  सूक्ष्म  कण  सुध्दा  आपल्या  केंद्रबिंदुस  अनुसरुन  परिभ्रमण  करीत  असतात.  या  सूक्ष्म  कणापेक्षा  सूक्ष्म  अशा  स्थितीत  प्राणीमात्रांचे  समस्त  भावोद्वेगाचे  स्पंदन  चालू  असते.  स्पंदनशील  अशा  जगात  काहीच  स्थिर  नाही.  चंचलता  हा  याचा  स्वभाव  आहे.  क्षणोक्षणी  बदलणे  याचा  स्वभाव  आहे.  या  स्पंदनापेक्षा  सूक्ष्म  स्थितीत  दत्त  प्रभूंचे  चैतन्य  असते.  यावरून  मला  सर्वात  महत्वाचे  म्हणजे  सूक्ष्म  असलेल्या  सगळयांपेक्षाही  सूक्ष्म  असलेल्या  श्री  दत्तप्रभूंचा  अनुग्रह  मिळविणे  जितके  सोपे  आहे,  तितकेच  कठीण   सुध्दा  आहे.  प्रति  कणाचे  अनंत  भाग  केले  असता,  एक  एक  कणाचा  भाग  शून्यासमान  होतो.  अनंत  अशा  शून्यांचे  फलस्वरूपच  ही  चराचर  सृष्टी  आहे.  पदार्थ  सृष्टी  ज्याप्रकारे  होते,  त्याचप्रमाणे  व्यतिरेकी  पदार्थाची  सुध्दा  असते.  या  दोहोचे  मिश्रण  झाल्यास  व्यतिरेक  पदार्थांचा  नाश  होतो.  पदार्थाचे  गुणात  सुध्दा  फरक  होतो.  अर्चावतारात  प्राणप्रतिष्ठा  केली  असता,  ती  मूर्ती  चैतन्यवंत  होऊन  भक्ताची  मनोकामना  पूर्ण  करते.  सर्व  मंत्र  कुंडलिनी  शक्तिमध्ये  असतात.  गायत्रीमंत्र  सुध्दा  ह्या  शक्तिमध्ये  सामावलेला  असतो.  गायत्री  मंत्रात  तीन  पाद  आहेत  असा  सर्वसाधारण  समज  आहे.  परंतु  या  मंत्रात  चौथा  पाद  सुध्दा  आहे.  तो  असा  ''परोरजसि  सावदोम''  चतुष्पाद  गायत्री  निर्गुण  ब्रह्मास  सूचित  करते.

कुंडलिनी  शक्ति  चोवीस  तत्वापासून  या  विश्वाची  निर्मिती  करते.  गायत्री  मंत्रात  चोवीस  अक्षरे  आहेत.  चोवीस  संख्येला  गोकुळ  असे  सुध्दा  नांव  आहे.  ''गो''  म्हणजे  दोन  ''कुळ''  म्हणजे  चार.  ब्रह्मस्वरूपात  कोणताच  बदल  होत  नाही.  ''परिवर्तनातीत''  असते  म्हणून  ते  नऊ  या  संख्येने  सूचित  केले  जाते.  आणि  ही  संख्या  महामायेचे  स्वरूप  दर्शविणारी  आहे.  श्रीपाद  श्रीवल्लभाचे  भक्तगण   त्यांना  ''दो  चौपाती  देवलक्ष्मी''  असे  म्हणत  असत.  सर्व  जीवांचा  पतिस्वरूप  परब्रह्मच  आहे.  म्हणून  पतिदेव  म्हणजे  नऊ  संख्या.  लक्ष्मी  म्हणजे  आठ  संख्या,  दो  म्हणजे  दोन  संख्या  चौ  म्हणजे  चार  संख्या  सूचित  करते  म्हणून  ''दो  चौ  पती  लक्ष्मी''  याचा  अपभ्रंश  होऊन  ''दो  चौपाती  देवलक्ष्मी''  असा  झाला.  हे  सर्व  जीवांना  2498  या  संख्येची  आठवण  करून  देत  असे.  गोकुळामध्ये  परब्रह्म  पराशत्तिच्  हे  श्रीपाद  श्रीवल्लभ  या  रूपानेच  आहेत.  श्रीकृष्ण  परमात्मा  हे  श्रीपाद  श्रीवल्लभच  आहेत.  गायत्री  मंत्राचे  स्वरूप  त्यांच्या  निर्गुण  पादुकेसमान  आहे.''  स्वामी  पुढे  म्हणाले  ''बाबा  शंकरा,  स्थूल  मानव  शरीरात  बारा  प्रकारचे  भेद  आहेत.  सर्वांना  अनुभवास  आलेले  स्थूल  शरीर  सूर्याच्या  प्रभावात  आलेले  आहे.''  श्रीपाद  श्रीवल्लभ  पीठिकापुरम  येथे  मानवशरीराने  अवतार  घेण्यापूर्वी  सुमारे  108  वर्षे  या  प्रदेशात  आले  होते.  त्यांनी  माझ्यावर  अनुग्रह  केला  होता.  सध्या  ज्या  रुपात  ते  कुरवपूर  क्षेत्रात  आहेत  त्याच  रूपात  तेव्हा  ते  येथे  आले  होते.  त्या  वेळी  आश्चर्यकारक  घटना  घडली.  हिमालयातील  काही  महायोगी  बद्रीकेदार  तीर्थ  क्षेत्रातील  बद्रीनारायणाची  ब्रह्मकमळे  अर्पण  करून  पूजा  करीत  होते.  ती  बद्रीनारायणाच्या  चरणी  वाहिलेली  ब्रह्मकमळे  श्रीपाद  श्रीवल्लभांच्या  चरणांवर  येऊन  पडत.  हे  दृश्य  आम्ही  स्वत:  नेत्राने  पाहिले  होते.
पळनीस्वामीच्या  त्या  दिव्य  वक्तव्याने  मी  अगदी  भारावून  गेलो.  अंगी  रोमांच  उठू  लागले.  मी  त्यांना  विचारले,  ब्रह्मकमळ  म्हणजे  काय  ?  ते  कोठे   मिळतात  ?  त्या  फुलांनी  पूजा  केली  असता  श्रीदत्तप्रभू  संतुष्ट  होतात  असे  आपल्या  सांगण्यावरुन  कळाले.  तरी  कृपा  करून  आपण  माझ्या  शंकेचे  समाधान  करावे.
ब्रह्मकमळाचे  स्वरूप 
माझ्या  विनंतीला  मान  देऊन  श्री  पळनीस्वामी  स्नेहपूर्ण  नजरेने  माझ्याकडे  पहात  म्हणाले  ''श्री  महाविष्णूंनी  श्री  सदाशिवाची  ब्रह्मकमळाने  पूजा  केली  होती.  श्री  विष्णुंच्या  नाभीतील  कमळाला  सुध्दा  ब्रह्मकमळ  असेच  म्हणतात.  दिव्य  लोकातील  ब्रह्मकमळासमान  भूमंडलातील  हिमालयामध्ये  हे  कमळ  सापडते.  सुमारे  बारा  हजार  फुटावर  हिमालयात  वर्षातून  एकदाच  हे  उमलते.  अर्धरात्रीच्या  वेळी  हे  फूल  उमलते  आणि  उमलत  असतांना  सभोवतालचा  परिसर  अद्भूत  सुवासाने  भरून  जातो.  हिमालयातील  साधक  माहात्मे  अशा  ब्रह्मकमळाच्या  शोधात  असतात.  शरद  ऋतुपासून   वसंतऋतु   पर्यंत  हे  बर्फामध्येच  असतात.  चैत्रमासाच्या  आरंभी  हे  बर्फातून  बाहेर  पडते.  ग्रीष्म  ऋतूमध्ये  याची  विकासाची  प्रक्रिया  घडते  अमरनाथ  मधील  अमरेश्वर  हिमलिंगाचे  दर्शन  श्रावण  शुध्द  पोर्णिमेस  होते  आणि  याच  वेळी  अर्धरात्री  हे  पूर्ण  विकसित  होऊन  उमलते.  हिमालयातच  तपस्या  करणाऱ्या  तपस्वी  सिध्द  पुरुषसाठी  व  साधकांसाठी  ही  परमेश्वरी  अद्भुत  लीला  होत  असते.  ब्रह्मकमळाच्या  दर्शनाने  सर्व  पातकांचा  नाश  होतो.  योग  सिध्दीतील  विघ्ने  नष्ट  होतात.  या  कमळाच्या  दर्शनाने  योगी,  तपस्वी,  सिध्द  पुरुष  आपापल्या  मार्गात  उच्च  स्थिती  प्राप्त  करतात.  ज्या  भक्तांच्या  भाग्यात  या  ब्रह्म  कमळाचे  दर्शन  असते,  त्या  सर्वांचे  दर्शन  घेणे  झाल्यावर  हे  कमळ  अंतर्धान  पावते.''

श्री  पळणीस्वामी  पुढे  म्हणाले.  ''बाबा  शंकरा  !  मी  दहा  दिवस  समाधीत  बसण्याचे  ठरविले  आहे.  दर्शन  घेण्याच्या  आर्त  इच्छेने  कोणी  भक्त  आल्यास  माझ्या  समाधीत  भंग  न  पडू  देता  त्यांना  शांतपणे  दर्शन  करवा.  साप  चावून  मृत  झालेले  कोणी  आल्यास  त्यांना  मी  समाधीमध्ये  असल्याचे  सांगून  मृत  देहास  नदीच्या  प्रवाहात  अथवा  जमिनीत  पुरून  ठेवावे ,  अशी  माझी  आज्ञा  आहे,  असे  सांगावे.''

श्री  पळनीस्वामी  बसलेल्या  आसनावर  समाधिस्त  झाले.  मी  आणि  माधव  दोघे  मिळून  येणाऱ्या  भक्तांना  दुरून  अत्यंत  शांतपणे  दर्शन  घडवून  आणित  होतो.  दर्शनास  आलेल्या  कांही  भक्तांना   तांदुळ,  दाळ,  पीठ  असे  साहित्य  स्वामींना  अर्पण  करण्यासाठी  आणले  होते.  ते  पाहून  माधवने  स्वयंपाक  करण्याचे  ठरविले .  सरपणासाठी  उपयोगात  आणण्यासाठी  त्याला  जवळच  पडलेले  एक  वाळलेले  मोठे  नारळाच्या  झाडाचे  पान  दिसले.  ते  आणण्यासाठी  तो  त्या  पानाजवळ  गेला.  त्याच्या  बरोबर  एक  भक्त   सुध्दा  होता.  माधवने  ते  पान  उचलून  खांद्यावर  ठेवले ,  इतक्यात  त्या  पानाखाली  बसून  विश्रांती  घेत  असलेला  एक  सर्प  रागाने  त्याला  कडकडून  चावला.  त्या  सर्पाचे  विष  एवढे  दाहक  होते  की  माधव  तत्काळ  काळानिळा  होऊन  मृत  झाला  व  जमिनीवर  पडला.  दोघा तिघांनी    मिळुन  त्याला  गुहे  जवळ  आणले.  ते  दृष्य  पाहून  मी  घाबरून  गेलो.  काय  करावे  ते  सुचेना.  तेंव्हा  स्वामींच्या  आदेशानुसार  त्याला  जमिनीत  पूरून  ठेवण्याचे  ठरवून   एक  खड्डा  खोदण्यास  सुरूवात  केली.  इतर  भक्तांनी  मला  मदत  केली.  त्या  खड्डयात  तो  मृतदेह  ठेऊन   मी  आलो.  तेवढयात  तेथील  गावातील  कांही  लोक  एका  सतरा  आठरा  वर्षाच्या,  सर्पदंशाने  मृत  झालेल्या  मुलास  घेऊन  आले.  प्रथम  माधवची  दुर्घटना,  नंतर  ही  दुसरी  घटना  पाहून  मला  रडू  आवरेनासे  झाले.  मी  कसे  बसे  त्यांना  स्वामींची  आज्ञा  सांगितली.  गावातील  लोकांनी  गुहेजवळच  एक  खड्डा  खोदून  त्या  मुलास  त्यात  झोपविले.  रोज  स्वामींच्या  दर्शनाला  तीनचार  लोक  येत  असत.  त्यांना  मी  दर्शन  घडवून  आणित  असे.  असे  दहा  दिवस  गेले.  अकराव्या  दिवशी  ब्रह्ममुहूर्तावर  श्री  पळनीस्वामी  आपल्या  समाधीतून  बाहेर  आले  आणि  माधवा  !  माधवा  !  अशा  हाका  मारू  लागले.  मी  रडत  रडत  झालेली  घटना  त्यांना  सांगितली.  स्वामींनी  मला  समजविले.  त्यांनी  योगदृष्टीने  माझ्याकडे  पाहिले.  तेव्हा  माझ्या  पाठीच्या  कण्यात  थोडे  चलन  वलन  झाल्यासारखे  वाटले  व  ते  दुखू  लागले.  नंतर  पुन्हा  एकदा  अगदी  प्रसन्न  चित्ताने  माझ्याकडे  पाहिले,  आणि  माझी  सारी  वेदना  नष्ट  झाली.  स्वामी  मला  म्हणाले  बाबा  शंकरा  !  माधवला  श्रीपाद  श्रीवल्लभांचे  दर्शन  स्थूल  शरीराने  होणार  नव्हते.  त्यामुळे  त्याचे  सूक्ष्म  शरीर  गेल्या  दहा  दिवसांपासून  कुरुवपुरात  असलेल्या  श्री  चरणांच्या  सान्निध्यात  आहे.  कांही  झाले  तरी  त्याची  इच्छा  पूर्ण  झाली.  श्रीपाद  श्रीवल्लभांची  लीला  अगाध  आहे.  ती  कोणी  ओळखू  शकत  नाही.  काळ,  कर्म,  कारण  यांचे  रहस्य  कोणी  जाणू  शकत  नाही  हेच  खरे.  ते  केवळ  स्वामीच  जाणू  शकतात  माधवला  पुन्हा  स्थूल  शरीरात  आणण्याचे  काम  प्रभूंनी  मजवर  सोपविले  आहे.  असे  श्री  पळणीस्वामी  म्हणाले,  स्वामींच्या  आदेशानुसार  माधवचा  मृत देह  बाहेर  काढून  आणला  व  दक्षिणेकडील  घनदाट  असलेल्या  ताडाच्या  झाडाजवळ  जाऊन  मोठ्याने  म्हटले  ''माधवास  दंश  केलेल्या  नागराजा  !  श्रीपाद  श्रीवल्लभांच्या  आज्ञेनुसार  तू  पळनीस्वामींच्या  जवळ  यावे.''  अशी  साद  घातली. श्री  पळनीस्वामींनी  आपल्या  वस्त्रातून  चार  कवडया  काढल्या  व  त्या मृत  देहाच्या  चारी  बाजूस  ठेवल्या .  थोडयाच  वेळात  त्या  कवडया  उंच  उडाल्या  व  आकाशात  चारी  दिशानी  गेल्या.  पाच  दहा  मिनिटातच  उत्तरे  कडून  एक  साप  आला.  स्वामींच्या  चार  कवडया  त्याच्या  फण्यात  रुतून  बसल्या  होत्या.  त्यामुळे  तो  त्रस्त  होऊन  फुस,  फुस  असा  ध्वनी  करीत  होता.  स्वामींनी  माधवच्या  शरीरातील  विष  काढून  घेण्यास  सांगितले.  सर्पदंश  ज्या  ठिकाणी   झाला  होता.  तेथूनच  त्याने  सर्व  विष  काढून  घेतले.  श्री  पळनीस्वामींनी  श्रीपाद  श्रीवल्लभांना  मनोमनी  नमस्कार  केला  व  त्या  सर्पावर  मंत्रोदक  शिंपडले.  तो  सर्प  स्वामींच्या  पद  कमलांना  स्पर्श  करून  व  त्यांना  तीन  प्रदक्षिणा  घालून  निघून  गेला. 
श्रीदत्त  भक्तांना  अन्नदान  केल्याचे  फळ 
श्री  पळनीस्वामी  म्हणाले  ''अरे  शंकरा,  हा  साप  गेल्या  जन्मी  एक  स्त्री  होता.  तिने  आयुष्यात  थोडे  पाप,  थोडे  पुण्य  केले  होते.  तिने  एका दत्तभक्ताला    जेवू  घातले  होते.  हा  पुण्याचा  भाग  होता. यथाकाली  तिने  देह  सोडल्यावर  यमदूत  तिला  यमराजांकडे  घेऊन  गेले.  तिला  यमराज  म्हणाले,  ''तू  एकदा  एका  दत्तभक्तास  जेवण  दिलेस,  त्याचे  विशेष  पुण्य  तुला  लाभले  आहे.  तुला  पाप  प्रथम  भोगायचे  आहे  का  पुण्य  फल  ?  ती  स्त्री  म्हणाली,  ''थोडे  आहे  ते  मी  प्रथम  भोगते.''  त्याप्रमाणे  तिला  पापयोनीत-सर्पाच्या  योनीत  जन्म  मिळाला.  तिची  वृती  सर्वांना  हानी  करण्याची  असल्याने  वाटेत  जो  कोणी  आडवा  येईल  त्याला  ती  चावत  असे.  ती  स्त्री,  मानव  जन्मात  रजोगुणी  असल्याने  तिच्या  केवळ  जवळ  गेलेल्या  माधवास  तिने  दंश  केला  होता.  तिच्या  पूर्व  पुण्याईनेच  माधवास  तिने  दंश  केला  होता.  माधव  मात्र  पूर्व  जन्मीच्या  पापामुळे  मरणासन्न  अवस्थेत  गेला  होता.  कालांतराने  श्रीपाद  श्रीवल्लभांच्या  कृपेने  त्या  स्त्रीची  सर्पयोनीतून  मुक्तता  झाली. 
योग्य  व्यक्तीस  केलेल्या  अन्नदानाचे  फळ
श्रीदत्तप्रभू  अल्पसंतोषी  आहेत.  थोडया  सेवेवर  ते  भक्तास  प्रसन्न  होऊन  अमाप  फळ  देतात.  श्रीदत्तांच्या  नावाने  कोणाही  व्यक्तीस  अन्नदान  केल्यास  व  जर  ती  व्यक्ति  योग्य  असल्यास  त्या  अन्नदानाचे  विशेष  फळ  लाभते.  अन्नाच्या  थोडया  भागाने  मन  बनते.  अन्नदात्याचे  मन,  बुध्दि,  चित्त,  अहंकार  शरीर  मंगल  स्पंदनाने  भरून  जाते.  यामुळे  त्याच्यात  लोकांना  आपणाकडे  आकृष्ट  करण्याची  शक्ति  उत्पन्न  होते.  पुढे  पळनीस्वामी  म्हणाले  ''इच्छित  वस्तूची समृद्धी  म्हणजेच  लक्ष्मीचा  कृपा  कटाक्ष.  ही  सृष्टी  सगळीच  सूक्ष्म  स्पंदनाने  सूक्ष्म  नियमांनी  चालत  असते.'' 
श्रीपाद  श्रीवल्लभांचा  महिमा 
श्रीपाद  श्रीवल्लभांचे  नामस्मरण  लक्ष्मी,  धन,  ऐश्वर्य,  समाधान  प्रदान  करणारे  आहे.  त्यांच्या  अनुग्रहितांच्या  भाग्याचे  काय  वर्णन  करावे  !  श्री  चरणांच्या  अनुग्रहानेच  दहा  दिवस  जमिनीत  पुरलेल्या  माधवच्या  शरीरास  कांही  झाले  नाही.  त्याला  प्राणदान  करणाऱ्या  श्रीपाद  श्रीवल्लभांची  करुणा,  दया,  भक्तप्रेम   हे  शब्दांनी  वर्णन  करता  येत  नाही.  माधवामध्ये  चैतन्य  येऊ  लागले  त्याने  तहान  लागल्यामुळे  पाणी  मागितले.  श्री  पळनीस्वामींनी  त्याला  समजावून  प्रथम  तूप  पिण्यास  दिले.  ते  घेतल्यावर  फळांचा  रस  दिला  आणि  थोडया  वेळाने  पाणी  दिले. 
नागलोकांचे  वर्णन
माधव  पुनर्जिवित  झाल्याने.  आमच्या  आनंदाला  सीमा  राहिली  नाही.  माधवाने  आपला  अनुभव  सांगण्यास  सुरूवात  केली,  ''मी  सूक्ष्म  शरिराने  कुरवपुरात  पोहोचलो  आणि  श्रीपाद  श्रीवल्लभांचे  दर्शन  घेतले.  श्रीपाद  श्रीवल्लभ  आजानुबाहु  आहेत.  त्यांचे  नेत्र  विशाल  आहेत.  त्या  नेत्रामध्ये  जीवांच्या  प्रति  करुणा,  दया,  प्रेम  निरंतर  प्रवाहित  होत  असते.  मी  स्थूल  देहधारी  नसल्यामुळे  तेथील  स्थूल  देहधारी  भक्ताना  मी  दिसत  नव्हतो.  श्रीवल्लभांनी  ''कुरवपुरातील  त्या  द्वीपाच्या  मध्यभागी  जा,''  अशी  आज्ञा  केली.  मी  श्री  वल्लभांचे  नामस्मरण  करत  त्या  द्वीपाच्या  मध्यभागांतून  खोलामध्ये  गेलो.  भूमीमध्ये  खोलांत  भुकेंद्राजवळ   अनेक  प्रासाद,  वरांडे  असल्यासारखे  भासले.  ते  पाताळ  लोकच 
आहे  अशी  खात्री  झाली.  स्थूलता  पहाणाऱ्याला  स्थूलरूप  पदार्थच  दिसतात.  माझ्या  सारख्या  सूक्ष्मरूआहे  अशी  खात्री  झाली.  स्थूलता  पहाणाऱ्याला  स्थूलरूप  पदार्थच  दिसतात.  माझ्या  सारख्या  सूक्ष्मरूप  धारित  शरिराला  सूक्ष्मरूप  असलेले  लोक  दिसले.  तेथे  असणारे  लोक  नागजातीचे  असून  कामरूपधारण  केलेले  होते.  त्यांना  इच्छा  असलेले  रुप  धारण  करण्याची  शक्ति   होती.  त्यांना  साधारणत:  नागरुपांतच  संचार  करणे  आवडे.  तेथे  मी  अनेक  महा  सर्पांना  पाहिले.  कांही  सर्पांना  हजार  फणे  होते.  फण्यावर  मणी  असून  त्या  मण्यातून  दिव्य  तेज  प्रसारित  होत  होते.  अन्य  नाग  योगमुद्रेत  असल्यासारखे  फणे  उकलुन  मौन  मुद्रेत  होते.  आश्चर्य  असे  की  त्यातच  एक  महासर्प  होता.  त्या  सर्पाला  हजार  फणे  होते.  त्या  महासर्पावर  श्रीपाद  श्रीवल्लभ  श्रीमहाविष्णूंसारखे  शयन  करीत  होते.  तेथे  असलेले  महासर्प  वेदगान  करीत  होते.  चिदानंद  स्वरूपाने  स्वामी  ते  गायन  ऐकत  होते.  माझ्या  बाजूला  असलेल्या  एका  महासर्पाने  श्रीदत्त  प्रभुंचा  महिमा  सांगण्यास  सुरुवात  केली.
श्री  दत्तात्रेयांचा  महामहिमा 
तो  म्हणाला  ''श्री  दत्तप्रभु  नेपाळ  देशात  असलेल्या  चित्रकुटातील  ''अनसूया  पर्वतावर''  अत्री  अनसूयेच्या  पुत्र  रूपाने  पूर्वयुगात  अवतरले.  ते  अवतार  न  संपवता  सुक्ष्मरूपात  नीलगिरी  शिखरावर,  श्रीशैल  शिखरावर,  शबरगिरी  शिखरावर,  सहयाद्रीमध्ये  संचार  करीत  असतात.  त्यांनी  नाथ  संप्रदायातील  गोरक्षनाथाला  योगमार्गाचा  उपदेश  दिला.  ज्ञानेश्वर  नावाच्या  योग्याला  खेचरी  मुद्रेत  बसलेल्या  निराकार  योगीरूपात  दर्शन  दिले.  श्री  दत्तप्रभु  देश  काळाहून  अतीत  आहेत.  श्री  प्रभूंच्या  सान्निध्यात  आम्हाला  भूत,  भविष्य,  वर्तमान  हे  वेगवेगळे  दिसत  नाहीत.  सगळेच  नित्य  वर्तमानच  असते.''
अनघा  समेत  दत्तात्रेयांचे  दर्शन 
तो  महासर्प  पुढे  म्हणाला,''बाबा  !  माधवा  !  आम्हाला  ''कालनाग  ऋषिश्वर ''  म्हणतात.  श्री  दत्ताने  हजारो  वर्ष  राज्याचे  परिपालन  केल्यानंतर  त्यांनी  त्यांच्या  रूपास  गुप्त  ठेवण्याचा  विचार  केला.  ते  कांही  वर्षे  नदीमध्ये  अदृष्य  राहिले.  त्यानंतर  ते  पाण्यावर  आले.  आम्ही  अनुचर,  परत  आमच्या  बरोबर  येतील  म्हणून  तेथेच  वाट  पहात  होतो.  परंतु  ते  आमच्या  पासून  लपण्याचा  प्रयत्न  करीत  होते.  ते  आम्हाला  माहीत  होते.  ते  परत  जलसमाधीत  जाऊन  थोडया  कालांतराने  (वर्षानंतर)  वर  आले.  या  वेळेस  मात्र  त्यांच्या  हातात  मधुपात्र  होते.  दुसऱ्या  हातात  16  वर्षाची  सुंदर  कन्या  होती.  मधुपान  करून  सदैव  गुंगीत  असणाऱ्या  आणि  स्त्रीच्या  दास्यात  असलेल्या  व्यक्तीस  आपण  आतापर्यंत  भ्रमाने  आपले  दैवत  मानले  होते  या  विचाराने  आम्ही  तेथून  परतलो.  त्याचवेळी  ते  दोघेही  अदृश्य  झाले.  ते  अदृश्य  झाल्यावरच  आम्हाला  ज्ञानोदय  झाला.  त्यांच्या  हातातील  मधुपात्र  हे  योगानंद  स्वरूप  असलेले  अमृत  आणि  ती  सुंदरी  त्रिशक्ति  रूपिणी  अनघालक्ष्मी  देवी  आहे,  याचे  आम्हाला  स्मरण  झाले.  पुनरपि  त्यांनी  ह्या  भूमीवर  अवतार  घ्यावा  या साठी  आम्ही  घोर  तपश्चर्या  केली.  आमच्या  तपश्चर्येचे  फलस्वरूप  श्री  दत्तात्रेयांनी  पीठिकापुरात  श्रीपाद  श्रीवल्लभ  या  नावाने  अवतार  घेतला.''
श्री  कुरुवपुराचे  वर्णन 
श्रीदत्तात्रेयप्रभू  त्या  दिवशी  ज्या  जागेत  स्नानासाठी  पाण्यात  उतरले  होते  तीच  जागा  म्हणजे  हे  आजचे  परम  पवित्र  कुरवपुर  आहे.  ते  जलसमाधीमध्ये  असताना  आम्हीसुध्दा  आमच्या  सूक्ष्मस्पंदनाने  ह्या  सूक्ष्मलोकांत  योग  समाधिमध्ये  होतो.  कौरवांचा  आणि  पांडवांचा  मूळ  पुरुष  ''कुरु''  महाराजाला  ज्ञानोपदेश  झालेले  कुरवपुरच  हे  पवित्रस्थळ  आहे.  बाबा  !  माधवा  !  ह्या  कुरवपुराचे  महात्म्य  वर्णन  करण्याचे  सामर्थ्य  आदिशेषास  सुध्दा  नाही.
सदाशिव  ब्रम्हेंद्रांची  पूर्वगाथा 
श्रीपाद  श्रीवल्लभांच्या  श्रीचरणांना  मी  अत्यंत  नम्रभावाने  नमस्कार  केला.  त्या  वेळी  प्रभु  अत्यंत  करुणापूर्ण  अंतरंगाने  म्हणाले.  ''वत्सा  !  हे  दिव्य  भव्य  दर्शन  म्हणजेच  फार  मोठा  अलभ्य  योगच  आहे.  तुला  बोललेला  एक  महासर्प  येणाऱ्या  शताब्दीत  ज्योती  रामलिंगेश्वर  स्वामी  या  रूपाने  अवतरून  ज्योती  रूपानेच  अंतर्धान  पावेल.  तुझ्याशी  बोललेलाच  दुसरा  महासर्प  सदाशिव  ब्रह्मेंद्र  या  नावाने  येणाऱ्या  शताब्दीत  भूमीवर  अवतार  घेऊन  अनेक  लीला  दाखवेल.  श्री  पीठिकापुर  सुध्दा  माझे  अत्यंत  प्रियस्थान  आहे.  पीठिकापुरात  मी  जन्मलेल्या  माझ्या  मातेच्या  गृहात   माझ्या  पादुकांची  प्रतिष्ठापना  होईल.  माझा  जन्म,  कर्म  अत्यंत  दिव्य  आहे,  ते  एक  गोपनीय  रहस्य  आहे.  तू  श्री  पीठिकापुरातील  माझ्या  पादुका  प्रतिष्ठास्थळापासून  पाताळात  जाऊन,  तेथील  तपोनिष्ठ  असलेल्या  कालनागांची  भेट  घेऊन  ये.'' 

श्री  पळनीस्वामी  मंदहास्याने  म्हणाले  ''बाबा  !  माधवा  !  पीठिकापुरातील  कालनागांविषयी  चर्चा  नंतर  करू.  आपण  सत्वरच  स्नानाची  पूर्ती  करून  ध्यानास  बसावे.  अशी  श्रीपाद  श्रीवल्लभांची  आज्ञा  आहे''

॥  श्रीपाद  श्रीवल्लभांचा  जय  जयकार  ॥




  श्री  गुरुवे  नम:  ॥  ॥  श्रीपादराजं  शरणं  प्रपद्ये  ॥ 

अध्याय  -4
 

कुरवपुरात  वासवांबिकेचे  दर्शन
    
श्रीपादांच्या  जन्मस्थानात  होणाऱ्या  लीला 
पळनीस्वामींच्या  आज्ञेनुसार  आम्ही  ध्यान  करण्याचा  संकल्प  केला.  श्री  पळनीस्वामी  म्हणाले,  ''बाबा  !  माधवा  !  वत्सा  !  शंकरा  आपण  तिघेही  श्रीपाद  श्रीवल्लभांच्या  आज्ञेनुसार  ध्यानस्त  होऊन  आपल्याला  घडलेल्या  ध्यानानुभवांची  चर्चा  करू  या.  ह्या  अवस्थेत  आपणास  एखादा  उत्कृष्ट  अध्यात्मिक  परिणाम  अनुभवास  येईल.  भविष्य  काळात  हूणशक  (इसवीसन)  हे  व्यवहारात  असेल.  आज  हूणशकानुसार  दिनांक  25-5-1336.  शुक्रवार  आहे.  आजचा  दिवस  आपल्या  जीवनातील  फार  महत्वाचा  आहे.  मी  माझ्या  स्थूल  शरीराला  येथेच  ठेऊन  सूक्ष्मशरीराने  कुरवपुरास  जाईन.  एका  वेळेस  चारपाच  ठिकाणी  सूक्ष्म  रूपांत  विहार  करणे  मला  बाल्यक्रीडा  वाटते.  आपण  सगळेच  श्रीपाद  श्रीवल्लभांच्या  ध्यानात  असताना,  त्यांची  आज्ञा  झाल्यावर  मी  सूक्ष्म  शरीराने  कुरवपुरात  त्यांच्या  सांनिध्यात  जाईन.''
स्वामींचा  अनुग्रह  मिळवण्याचे  विधान
श्री  स्वामींचे  वक्तव्य  ऐकल्यावर  मला  गंमत  वाटली  म्हणून  विचारले,  ''स्वामी  !  माधवाने  श्रीवल्लभांच्या  दिव्य  मंगल  स्वरूपाचे  दर्शन  घेतले  आहे.  आपण  सदैव  श्रीवल्लभांबरोबर  सूक्ष्मरूपाने  विचरण  करता,  मला  मात्र  त्यांचे  नावच  माहीत  आहे,  रूप  माहीत  नाही.  मग  ध्यान  कसे  करायचे  ?''  त्यावर  श्री  पळनीस्वामी  मंदहास्य  करित  म्हणाले.  ''बाबा  !  श्रीपादांची  भक्ती  असल्यास  सगळेच  सिध्द  होईल.  श्रीपादप्रभु  सर्वात  प्रथम  आपल्या भक्ताचे  कासवाच्या  पिलाप्रमाणे  पालन  करतात.  कासव  आपल्या  पिलापासून  किती  दूर  असले  तरी  त्याच्या  विचार  तरंगानेच  त्या  पिलांचे  रक्षण  होते.  थोडी  उन्नती  झाल्यावर  मांजराचे  पिलां  प्रमाणे  भक्ताचे  पालन  करतात.  जसे  मांजर  त्याच्या  पिलाला  आपल्या  तोंडात  धरुन  एका  घरातून  दुसऱ्या  घरात  घेऊन  जाते.  त्या  किशोरांसाठी   जेथे  सुरक्षीत  स्थान  वाटते  तेथेच  त्या  पिलास  ठेवते .  त्यानंतर  माकडाचे  पिलां  प्रमाणे  भक्ताचे  पालन  होते.  अशा  पालनात  पिल्लू  त्यांच्या  आईस  अति  प्रयत्नाने  चिटकुन  असते.  अधिक  उन्नती  झाल्यावर  आई  मासोळी  बरोबर  अति  स्वेच्छेने  आनंदाने  विहार  करणाऱ्या  बाल  माश्या  सारखे  भक्त  श्रीगुरु  समवेत  असतात.  तू  ध्यानात  बसल्यावर  तेच  दर्शन  देतील.  आज  25-5-1336,  शुक्रवार  सर्व  शुभयोग  मिळून  असलेला  योग.  संपूर्ण  असा  महोत्तम  दिवस  आहे.  श्रीवल्लभांनी  अतिमुख्य  असा  भविष्यनिर्णय 
पुत्र  दिला.  त्याचे  पूर्व  जन्मीचे  पाप  निवारण  करून  त्याला  योग्य  असा  पंडित  करावयाचे  म्हणजे  कर्मसूत्राला  अनुसरून  तू  देहत्याग  करण्यास  सिध्द  असलास  तर  मी  त्याला  योग्य  असा  पंडित  करेन.''  त्यावर  शिवशर्मा  म्हणाले,  ''स्वामी  !  माझा  वृद्धावस्थेमध्ये  प्रवेश  झालेलाच  आहे.  मी  माझे  जीवन  त्यागण्यास  सिध्द  आहे.  माझा  कुमार  बृहस्पतीसारखा  पंडित,  वक्ता  झाल्यावर  मला  दुसरे  काय  हवे  ?  संपूर्ण  चराचराला,  घटाघटाला  व्यापून  रहाणारे  सामर्थ्यवंत  श्रीपाद  प्रभू  म्हणाले,  ''बरे  !  तुझा  लवकरच  मृत्यू   होईल.  मरणांनंतर तर  सूक्ष्म  देहाने  धीशीला  नगारामध्ये  (सध्याचे  शिर्डी)  निंबवृक्षाच्या  पायथ्यापाशी  असलेल्या  भूगृहात   थोडाकाळ  तपश्चर्येत  रहाशील.  त्यानंतर  पुण्यभूमि  असलेल्या  महाराष्ट  देशामध्ये  जन्म  घेशील.  ह्या  विषयी  तू  तुझ्या  बायकोला  थोडे  सुध्दा  कळू  देऊ  नकोस.''
श्रीपाद  श्रीवल्लभांच्या  भावीजन्माचा  निश्चय  (आविष्करण) 
लवकरच  शिवशर्मा  मरण  पावला.  अंबिका  तिच्या  मुलासह  भिक्षाटन  करून  जगत  होती.  शेजार  पाजारचे  लोक  हसत,  टिंगल  उडवीत.  त्यास  अंतच  नसे.  त्या  मठ्ठब्राह्मण  मुलास  अपमान  असह्य  होऊन  तो  आत्महत्या  करण्यासाठी  नदीकडे  पळत  सुटला.  त्याची  माता  सुध्दा  असहायपणे  आत्महत्या  करण्यासाठी  मुलाच्या  मागे  पळत  सुटली.  त्यांच्या  पूर्वपुण्याईच्या  प्रभावाने  वाटेत  श्रीपाद  श्रीवल्लभ  स्वामी  सामोरे  आले.  त्या  दोघांनाही  त्यांनी  आत्महत्येच्या  प्रयत्नातून  सोडविले.  श्रीपाद  श्रीवल्लभ  स्वामींनी  त्यांच्या  अपार  करुणा  कटाक्षाने  त्या  मूर्ख  बालकाला  महापंडित  केले.  अंबिकेने  शेष  जीवन  शिव  पूजेत  घालवावे  असा  आदेश  दिला.  शनिप्रदोष  व्रताचे  महात्म्य  सांगून  प्रदोष  समयास  केलेल्या  शिवपूजानाचे  फळ  कसे  मिळते  ह्याची  सविस्तर  माहिती  दिली.  पुढील  जन्मी  अंबिकेला  ''माझ्या  सारखाच  मुलगा  होईल''  असा  वर  दिला.  परंतु  त्यांच्या  सम  या  तिन्ही  लोकांत  कोणीही  नसल्याने  श्रीस्वामीनी  पुढील  जन्मात  तिच्या  पुत्र  रूपात  जन्म  घेण्याचा  निश्चय  केला.
नृसिंहसरस्वति  आणि  स्वामी  समर्थ  यांचा  जन्मसंकल्प 
समस्त  कल्याणकारी  गुणांनी  युक्त  अशा  वासवांबिकेस  श्रीपाद  प्रभू  म्हणाले  ''तुझा  संकल्प  सिध्द  होईल  !  मी  आणखी  14  वर्षे  म्हणजे  या  शरिराला  30  वर्ष  येईपर्यंत  श्रीपाद  श्रीवल्लभ  या  रूपांतच  राहून  त्या  नंतर  गुप्त  होईन.  त्यानंतर  संन्यास  धर्माच्या  उध्दाराच्या  निमित्ताने  नृसिंहसरस्वती  ह्या  नावाने  ओळखला  जाईन.  ह्या  दुसऱ्या  अवतारात  80  वर्षे  राहीन,  या  अवतार  समाप्तीनंतर  कर्दळी  वनात  300  वर्ष  तपोनिष्ठेत  राहून  प्रज्ञापुरात  (अक्कलकोट)  स्वामी  समर्थ  या  नावाने  अवतार  धारण  करीन.  अवधूत  अवस्थेत  सिध्दपुरुषांच्या  रूपाने,  अपरिमित  अशा  दिव्यकांतीने,  अगाध  लीला,  दाखवीन.  साऱ्या  जगाला  धर्म  कर्माला  अनुसरून,  त्या  विषयी  आसक्तीरहित  करीन.''
पळनीस्वामी  पुढे  म्हणाले  जशी-जशी  युगे  बदलतील  तशी-तशी  मानवाची  शक्ती  कमी  होत  जाईल.  त्यासाठी  परतत्त्व  ऋषिश्वरांच्या  इच्छेनुसार  खालच्या  स्थाईवर  उतरून  येईल.  शरिरधारी  प्रभूंचा  अवतार  म्हणजे  संपूर्ण  अनुग्रहाचे  सूचकच  होय.  अशा  रीतीने  प्रभूतत्त्व  खालच्या  पातळीवर  उतरण्याने  थोडया  श्रमाने  मानवास  उत्तम  फळ  प्राप्त  होईल.  म्हणूनच  कलियुगातील  मानव  धन्यआहेत.  केवळ  स्मरण  मात्रेच  दत्तप्रभूंचा  अनुग्रह  प्राप्त  होईल.  मानवाचे  पतन  होण्यास  जेवढे  मार्ग  आहेत,  श्रीचरणांचा  अनुग्रह  प्राप्त  होण्यास  त्याहीपेक्षा  असंख्य  मार्ग  आहेत.  हेच  परम  सत्य  आहे.  स्मरण,  अर्चन  केल्यामुळे  श्रीपाद  श्रीवल्लभ  प्रभूंशी  अनुसंधान  घडते.  यामुळे  साधकांचे  पापकर्म,  दोष,  विषयवासना,  संस्कार  श्रीपाद  श्रीवल्लभांच्या  चैतन्यात  प्रवेश  करतात.  त्यांच्याकडून  भक्तांना  श्रेयस्कर  शुभस्पंदनांचा  लाभ  होतो.  श्रीपाद  प्रभू  साधकांच्या  चैतन्यात  प्रवेश  झालेल्या  पाप  समुदायाचे  पवित्र  नदीच्या  स्नानानेच  निर्मूलन  करतात.  तसे  न  केल्यास  त्यांच्या  योगाग्नीनेच  त्या  पापांना  जाळून  भस्म  करतात.  ते  स्वत:  तप  करून  त्या  तपाचे  फळ  त्यांच्या  भक्तांना  देतात.  कर्मसूत्राचे  अतिक्रमण  न  करता  भक्ताचे  रक्षण  करतात.  त्यांना  आवश्यक  वाटल्यास  कितीही  जडस्वरूपी  कर्मफलांचे  शोषण  करून  आपल्या  भक्तांना विमुक्तीचा  प्रसाद  देतात.  क्षणोक्षणी  त्यांच्या  कर्मांचा  ध्वंस  करतात.  म्हणुनच,  त्यांच्या  भक्तांची ,  त्यांच्या  न  कळनच  कर्मबंधनातून  सुटका  होते.  मुक्ती  मिळते.  या  पळनीस्वामींच्या वक्तव्यानंतर  सुध्दा  माझ्या  मनातील  प्रश्न  मिटला  नव्हता.  मी  त्यांना  अजून  एक  प्रश्न  विचारण्याचे  साहस  केले.  ''स्वामी  !  साडेसातीच्या  त्रासातून  शंकराची  सुध्दा  सुटका  झाली  नाही  असे  ऐकले  होते.  ग्रहासंबंधी  त्रासातून  श्रीगुरु  सार्वभौम  कशा  प्रकारे  सुटका  करतात,  ह्याबद्दल  माहिती  द्यावी  अशी  प्रार्थना.''  या  वर  पळनीस्वामी  म्हणाले.

''बाबा  !  शंकरा  !  खगोलातील  ग्रहांना  जीवांशी  मित्रत्व  किंवा  शत्रुत्व  असे  नसतेच.  मानव  जन्माच्या  वेळी  त्याच्या  प्रारब्ध  कर्माला  अनुसरून  ग्रह  महर्दशेने  जन्म  घेतो,  त्या  ग्रहांना  अनुसरून  शुभाशुभ  फळ  त्याला  मिळत  असते.  ग्रहांच्यामुळे  येणारे  सूक्ष्मकिरण  अशुभ  फळ  देणारे  असल्यास,  त्यांच्या  दोष  निवारणासाठी  मंत्र,  तंत्र,  यंत्राने  काही  फळ  न  दिसल्यास,  जप,  तप  होमाचा  आश्रय  घ्यावा.  या  उपायाने  सुध्दा  उपशमन  न  झाल्यास  श्रीगुरु  पादुकांना  शरण  जावे.  श्रीचरण   सर्वशक्ती  संपन्न  असतात.  शक्तीमध्ये  चांगल्या  आणि  वाईट  शक्ती  असतात.  त्या  त्या  शक्तीकडून  निघालेली  स्पंदने  शुभ  अशुभ  घटना  घडवून  आणतात.  प्रत्येक  ग्रहास  मानव  शरिरातील  थोडया  विशेष  भागावर  अधिपत्य  असते.  ग्रहबाधा  असल्यास  मानवाच्या  शरिरातील  कोणत्या  भागावर  त्या  त्या  ग्रहांचे  अधिपत्य  असते,  तेच  पिडित  होतात.  विश्वचैतन्यापासून  प्रवाहित  सूक्ष्म  स्पंदना  मुळेच  इष्ट  अनिष्ट  फळांची  सिध्दी  होते.  स्पंदनांमुळे  आकर्षण  किंवा,  विकर्षण  होते.  सज्जनांचा  सहवास  असणाऱ्या  व्यक्तीस  दुर्जन  सहवास  घडल्यास  अकारण  कलह,  बंधुवियोग,  कुटुंबातील  सदस्यांशी  वाद-विवाद  होतात.  हे  सारे  आकर्षण  शक्ती  कमी  झाल्याने  मिळणारे  अनिष्ट  फळ  आहे.  विश्वशक्तीकडून  स्पंदनाची  निरंतर  उत्पत्ति  होत  असते.  ते  थोडया  कालावधीपर्यंत  त्या  माणसावर  प्रभाव  पाडण्याचे  कार्य  करतात.  काळ  हा  शक्ती-स्वरूप  आहे.  थोडया  कालांतराने  ती  स्पंदने  त्या  माणसास  सोडून  विधीरीत्या  प्रभावित  होणाऱ्या  माणसाच्या  शरीरात  प्रवेश  करतात.  कालचक्राला  अनुसरून  त्याचे  फळ  मिळत  असते.  मानवाची  दैवभक्ती   जागृत   होऊन  जप,  तप  केल्यास  ग्रहांची  तीव्रता  थोडया प्रमाणात  कमी  होते.  महात्मे  लोक  विश्वकल्याणाची  इच्छा  करून  विविध  प्रकारचे  यज्ञ  करीत  असतात.  त्यांच्या  तपाचे  फळ  सुध्दा  दान  करीत  असतात.  ह्या  प्रक्रियेने  विश्वात  उद्भवलेली  अनिष्टकारक  अशी  स्पंदने  एका  माणसानंतर  दुसऱ्या  माणसाला  कष्ट  न  देता  ती  जेथून  उद्भवली  तेथेच  परत  जातात.  म्हणजे  मूळ  बिंदुस्थानात  जातात.  ह्याला  तिरोधान  म्हणतात.  थोडे  पुण्यकार्य  केल्याबद्दल  विशेष  शुभ  फळ  मिळाल्यास  त्यास  अनुग्रह  असे  म्हणतात.  स्वामी  पुढे  म्हणाले  ''बाबा!  क्रियायोग  सिध्दांताप्रकारे  सृष्टी ,  स्थिती,  लय  या  तिरोधान  अनुग्रहांना  मी  स्पष्ट  केले.  तू  ध्यानात  असताना  पाहिलेल्या  यवन  भासणाऱ्या  साधूमध्ये  भविष्यात  श्रीपाद  श्रीवल्लभांची  शक्ति  विशेषरीत्या  प्रवाहित  होईल.  निंबवृक्षाच्या  जवळ  असलेल्या,  भूगृहातील   चार  नंदादिपांना  तू  पाहू  शकलास  ही  असाधारण  किमया  आहे.  श्रीपाद  श्रीवल्लभांनी  कोणत्यातरी  महान  उद्देशाच्या  दृष्टीनेच  तुला  असा  अनुभव  दिला.  त्यांची  आंतरिक  कल्पना  केवळ  त्यांनाच  माहीत  आहे.  त्यांच्या  लीला  फार  अगम्य  असतात.  गुढार्थ  प्रयोजक  असतात.  त्यांच्या  व्यतिरिक्त  दुसऱ्यांना  त्याचा  मतितार्थ  जाणता  येत  नाही.  त्यात  सुध्दा  देवरहस्ये  असू  शकतात.  त्यांच्या  अनुमतिनेच  मी  तुला  त्याचे  विवरण  करु  शकलो.  समस्त  सृष्टी  त्यांच्या  नजरेखालीच  असते.  त्यांचे  तेच  प्रमाण  आहेत.  त्यांच्यात  तेच  श्रेष्ठ  आहेत.  विश्वनियंता  सुध्दा  तेच  आहेत,  योगसिध्द  आहेत,  अमेय  आहेत.  ते  परिणामांना,  मोजमापांना,  परिमितीला  साध्य  होणारे  विषयच  नाहीत.''

श्री  पळनीस्वामींच्या  या  वर्णनाने  माझे  मन  आनंदाने  बहरून  गेले.  मी  उडुपी  क्षेत्राहून  निघालो.  कुरवरपुरास  जाताना  मध्येच  कितीतरी  चित्र-विचित्र  अशा  घटना  घडत  चालल्या  होत्या.  या  सर्व  ग्रंथस्थ  करण्यासाठी   श्रीगुरु  सार्वभौमांची  अनुमति  घ्यावी  या  विचाराने  श्रीपाद  श्रीवल्लभांच्या  दर्शनोत्तर  त्यांच्याशी  विचार  विनिमय  करण्याचे  ठरविले .

श्री  पळनीस्वामींनी  माझ्या  मनातील  भावाला  लीलेनेच  समजुन  घेतले  ते  म्हणाले  ''तुझ्या  मनातील  भाव  मला  अवगत  झालेला  आहे.  भविष्यात  भक्तांच्या  हितासाठी   श्रीप्रभूंच्या  चरित्राचे  लिखाण  करण्याचे  तू  ठरवले   आहेस.  ते  जरूर  तुझ्या  प्रयत्नांना  आशिर्वाद  देतील.''  त्यानंतर  श्री  पळनीस्वामी  माधवास  त्याच्या  ध्यानानुभवाविषयी  सांग  असे  म्हणाले.  माधवाने  आपले  अनुभव  सांगण्यास  सुरूवात  केली.
श्रीपाद  श्रीवल्लभांचे  जन्मस्थानी,  श्रींच्या  पादुका,  श्रीपाद  श्रीवल्लभ, 
श्रीदत्तात्रेय  आणि  श्री 
नृसिंहसरस्वती  यांच्या  मूर्तिंची  प्रतिष्ठापना 
श्री  पळनीस्वामी  म्हणाले,  ''बाबा  !  शंकरा,  तू  दर्शन  घेतलेले  श्रीवल्लभांचे  मातागृह   तुझ्यातील  सर्वशक्तींना  आकर्षित  केलेले  स्थळ  श्रीपाद  श्रीवल्लभांचे  जन्मस्थान  आहे.  तेथे  असलेल्या  पादुकांच्या  खाली  पाताळात  अनेक  सहस्त्र  वर्षांपासून  तपात  बसलेले  ऋषी  आहेत.  तू  पाहिलेल्या  श्रीवल्लभांच्या  जन्मस्थानातच  केवळ  श्रींच्या  पादुकांची  प्रतिष्ठापना  केली  जाईल.  पादुकांच्या  प्रतिष्ठापणे  नंतर  काही  वर्षानी  अति  प्रयत्नाने  श्रीपाद  श्रीवल्लभांचे  चरित्रामृत  प्रकाशित  होईल.  तू  बसून  ध्यान 



॥  श्री  गुरुवे  नम:  ॥  ॥  श्रीपादराजं  शरणं  प्रपद्ये  ॥ 

अध्याय  -5
 

शंकर  भट्टाचे  तिरुपतीला  पोहोचणे
काणिपाकात  तिरुमलदासांची  भेट
    
श्रीपादांच्या  अनुग्रहाने  शंकर  भट्टाची  शनिपीडा  निवारण
मी  माझ्या  प्रवासात  परम  पवित्र  तिरुपती  महाक्षेत्रास  आलो.  माझ्या  मनात  केव्हाही  न  अनुभवलेल्या  शांतीचा  अनुभव  आला.  तिरुपती  महाक्षेत्रातील  पुष्करणीचे  स्नान  करून  श्री  वेंकटेश्वराचे  दर्शन  घेतले.  मंदिराच्या  अंगणातच  ध्यानस्थ  झालो.  ध्यानात  श्री  वेंकटेश्वरांना  स्त्रीमूर्तिरूपात  पहिले.  बालत्रिपुरसुंदरी  या  रूपात  पाहिलेली  मूर्ति  थोडया  क्षणां  तच  परमेश्वराच्या  रूपात  बदलली,  आणि  थोडया  वेळाने  महाविष्णुच्या  रूपात  बदलली.  ध्यानात  असतानाच  काही  वेळाने  ती  मूर्ती  चौदा  वर्षाचे  वय  असलेल्या  अतिसुंदर  काया  धारण  केलेल्या  बालयतीच्या  रूपात  प्रकट  झाली.  त्या  बाल  यतीची  दृष्टी  अमृतमय  असल्याचे  जाणवले.  नेत्रद्वयातून  हजारो  मातेच्या  वाच्छल्यानुरागाची  जणु  वर्षाच  होत  होती.  एवढयातच  त्या  बालयतीजवळ  काळया  रंगाचा  एक  कुरूप  माणूस  पोहोचला.  तो  त्या  बालयतीस  म्हणाला,  ''श्रीपाद  श्रीवल्लभ  प्रभू  !  आपण  साऱ्या  जगाचे  नियंत्रण  करणारे  आहात.  तुमचा  भक्त  असलेल्या  शंकर  भट्टाला  आजपासून  साडेसातीचा  प्रारंभ  होत  आहे.  या  विश्वात  अनेक  प्रकारचे  कष्ट  आहेत  ते  मी  त्याच्या  अनुभवास  आणीन.  प्रभूंच्या  आज्ञेसाठी येथे  उभा  आहे.''  करुणांसागर  प्रभु  म्हणाले,  ''अरे  शनेश्चरा  !  तू  कर्मकारक  आहेस.  जीवांना  कर्मफलितांचे  अनुभव  करवून  त्यांना  कर्मविमुत्तच्  करतोस.  तू  तुझ्या  धर्माला  अनुसरून  कर्तव्य  कर.  आश्रित  जनांचे  रक्षण  करणे  ही  माझी  प्रतिज्ञा  आहे.  म्हणून  शंकर  भट्टाला  मी  तुझ्या  पासून  झालेल्या  कष्टकाळात  सहाय्य  करून  कशी  सुटका  करून  देतो  ते  तू  बघ.''  श्रीपाद  महाराज  आणि  शनैश्चराचे  असे  संभाषण  झाल्यावर  दोघेही  माझ्या  ध्यानातून  निघून  गेले.  परंतु  नंतर  भगवन्मूर्तिचे  ध्यान  करणे  कठीण झाले.  माझ्या  कष्टकाळाची  सुरूवात  झाली.  श्रीपादांकडून  माझी  कष्टातून  सुटका  होईल  याचा  दृढ  विश्वास  होता.  मी  तिरुमलाहुन  तिरुपतीला  आलो.

तिरुपतीच्या  रस्त्यावर  मनाला  वाटेल  तसे  चाललो  होतो.  मन  चंचल  होते.  एक  न्हावी  मला  बळजबरीने  थांबऊन  म्हणाला,  ''तू  वीस  वर्षापूर्वी  घरातून  पळून  गेलेला  सुब्बय्या  आहेस  ना  ?  तुझे  आईबाप  काळजी  करीत  आहेत.  तुझी  भार्या  रजस्वला  झालेली  आहे.  ती  वयात  आली  आहे.  तू  तिच्या  बरोबर  संसार  कर.  मुलाबाळासहित  सुखी  रहा.  तेव्हाच  मी  म्हणालो,  ''अहो,  मी  शंकरभट्ट  नावाचा  कन्नड  देशात  राहणारा  ब्राह्मण.  वाटसरू  आहे  आणि  पुण्यक्षेत्र  संचार  करीत  येत  आहे.  मी  दत्तभक्त  आहे.  श्री  दत्तप्रभू  श्रीपाद  श्रीवल्लभ  या  नामरूपाने  अवतरले  आहेत,  असे  ऐकून  कुरूगड्डीला प्रयाण  आरंभिले  आहे.  परम  पवित्र  गायत्रीची  शपथ  घेऊन  सांगतो,  मी  ब्रह्मचारी  आहे.  मी  तुम्ही  म्हणता  तो  सुबय्या  न्हावी  नाही.''

परंतु  माझा  आवाज  ऐकणारे  कोणी  नव्हते.  तेथे  पुष्कळ  लोक  जमा  झाले  होते.  प्रत्येकजण  कोणत्या  न  कोणत्या  रीतिने  माझी  निंदाच  करीत  होता.  मला  सुब्बय्या  नावाच्या  माणसाच्या  घरी  नेण्यात  आले.  सुब्बय्याचे  आई  वडील  मलाच  त्यांचा  मुलगा  समजून  अनेक  प्रकारे  माझी  समजूत  घालीत  म्हणाले,  या  पुढे  आम्हाला  सोडून  जाऊ  नकोस.  रजस्वला  स्त्रीला  सोडून  जाणे  हा  महाअपराध  आहे.  त्यातील  एक  माणूस  म्हणाला,  ''सुब्बय्या  दाढी  आणि  मिशांनी  झाकला  गेला  आहे.  याचे  क्षौरकर्म  केल्यास  पूर्वीची  कळा  येईल.''  मी  सुब्बय्या  नाही  असे  अनेकदा  सांगितले  परंतु  माझे  ऐकणारे  कोणीच  नव्हते.  बळजबरीने  माझे  क्षौर  कर्म  करण्यात  आले.  गुळगुळीत  गुंडू  केला.  दाढी,  मिशा  पण  काढून  टाकल्या.  माझ्या  गळयातील  पवित्र  यज्ञोपवित  सुध्दा  काढून  टाकले.  माझ्यासाठी  त्यांच्या  माहितीतल्या  एका  भूत  वैद्याला  बोलावण्यात  आले.  त्याने  चित्रविचित्र  अशी  वेशभूषा  केली  होती.  त्याच्या  भयंकर  दृष्टीनेच  माझ्या  हृदयात  कांपरे  भरले.  मला  बांधून  चाकूने  माझ्या  डोक्यावर  वार  केला  गेला.  त्यावर  लिंबाचा  रस  आणि  विविधप्रकारचे  रस  ओतले  गेले.  मला  तो  त्रास  सहन  होत  नव्हता.  हा  सगळा  छळ  झाल्यावर  सुब्बय्याला  ब्राह्मण  भूताने  पछाडले  आहे,  म्हणूनच  हा  जानवे  घालून  मंत्र  बरळतो  असा  निर्णय  घेण्यात  आला.  तिरुपतीत  असलेले  ब्राह्मण  सुध्दा  स्तब्धच  झाले  होते.  ह्या  नगरात  आलेला  वाटसरू  सुब्बय्याच  आहे,  त्याला  एका  ब्रह्मराक्षसाने  बाधले  आहे  असेच  ते  समजले.  मला  त्या  गावातील  मोठ्या   श्रेष्ठ  ब्राह्मणांकडे  नेले  गेले.  मी  कन्नड  देशीय  स्मार्त  ब्राह्मण  आहे,  भारद्वाज  गोत्राचा  आहे.  नमक  चमक  मला  येते,  संध्या  वंदन  पण  करतो  असे  माझ्या  सांगण्यावर  त्यांचा  विश्वासच  नव्हता.  सुब्बय्यास  एका  कन्नड  ब्राह्मण  भूताने  झपाटले  आहे,  त्यासाठी  योग्य  चिकित्सा  करून  परत  पूर्वीसारखे  करावे.  असे  त्या  श्रेष्ठ  ब्राह्मणांनी  सांगीतले.
घावाने  झालेल्या  त्रासाने  मी  चक्राऊन  गेलो.  माझे  रुदन  केवळ  अरण्यरुदनासारखेच  झाले.  शुध्दीवर  आलो  तेव्हा  माझ्या  समोर  माझ्या  सारखाच  काळे  तेज  असलेला  एक  विकृत  आकाराचा  माणूस  बसलेला  आहे  असे  वाटले.  तो  माझ्याशी  काही  न  बोलता  माझ्यामध्ये  समाऊन  गेला.  माझ्याशी  तदाकार  झाला.  साडेसातीच्या  प्रभावाने  साडेसात  वर्ष  माझा  कष्टकाळ  आहे.  याची  कल्पना  मला  आली.  श्रीपाद  श्रीवल्लभच  या  कष्टाच्या  काळात  माझे  रक्षण  करतील  असा  मला  दृढ  विश्वास  होता.  तेवढया  तापात  सुध्दा  मी  मनात  श्रीपाद  श्रीवल्लभांचे  नामस्मरण  करीत  होतो.  श्रीचरणांचे  नामस्मरण  केल्याबरोबर  माझा  त्रास  कमी  होण्यास  सुरुवात  झाली.  भूतवैद्य  मात्र  कोंबडया,  बकऱ्यांची  बळी  देत,  चित्रविचित्र  पूजा  करीत  होता.  मला  मात्र  पथ्याचा  आहार  दिला  होता.  सुब्बय्याला  ब्राह्मण  भूताने  बाधले  आहे,  त्यामुळे  त्याला  शाकाहारच  दिला  पाहिजे  असे  मांत्रिकाने  सांगितले.  श्रीपादांच्या  अनुग्रहानेच  मला  शाकाहार  दिला  गेला,  याचे  मनाला  बरे  वाटले.  तीन  दिवस  मी  तीव्र नरक  यातना  भोगल्या.  त्या  संकटात  सुध्दा  मी  श्रीचरणांचे  स्मरण  न  चुकविल्यामुळे  चौथ्या  दिवसापासून  संकटे  येणे  बंद  झाले.  ते  लोक  माझ्या  शरिरावर  चित्रविचित्र  असे  प्रयोग  करीत  होते.  मांत्रिक  मधून  मधून  चाबकाने  मारत  होता.  ''श्रीवल्लभा  शरणं  शरणं''  अशी  दीनतेने  हाक  मारीत  मी  रडत  होतो.  श्रीदत्ताची  अनन्य  भक्तीने  सेवा  करणाऱ्याला  ही  अशी  नरकबाधा  कशी  असते,  याचे  मला  आश्चर्य  वाटत  होते.  तेवढयातच  विचित्र  घडले.  माझ्या  शरिरावर  चाबकाचा  मार  बसला  परंतु  मला  किंचित  सुध्दा  त्रास  झाला  नाही.  तेव्हा  मांत्रिकच  रडू  लागला.  तो  मला  मारत  होता,  पण  त्याच्या  माराचा  त्रास  त्यालाच  होत  होता.  हे  कसे  घडते  हे  त्याला  समजत  नव्हते.  तो  माझ्याकडे  वेडसर  नजरेने  पाहात  होता.  मी  मात्र  ही  श्रींचीच  लीला  आहे  असे  समजून  हसलो.  मी  पथ्याचेच  जेवण  जेवत  होतो  परंतु  ते  सुध्दा  मला  मधुर  वाटत  होते.  मी  पोटभर  जेवण्यास  सुरूवात  केली.  जेवण  श्रीपादांच्या  अनुग्रहाचा  प्रसाद  समजून  जेवत  होतो.  तो  मांत्रिक  मात्र  त्याच्या  आवडीचे  कोंबडया  बकऱ्या  खात  असला  तरी  त्याला  ते  विषासाखेच  भासत  होते.  त्याची  तब्येत  पण  क्षीण  होत  होती.  तो  मला  त्रास  देण्याचे  सोडून  केवळ  मंत्र,  पूजा  वगैरे  करून  वेळ  घालवीत  होता.  माझा  इलाज  सुरू  झाल्यापासून  पाचव्या  दिवशी  त्याचे  घर  जळून  गेले.  त्या  घरात  अग्नी  नव्हताच,  तरीसुध्दा  सगळयांच्या  देखतच  अग्नी  प्रकट  झाला  आणि  क्षणातच  सगळे  राख  झाले.  सहाव्या  दिवशी  तो  खिन्नतेने  सुब्बय्याच्या  घरी  येऊन  म्हणाला,  ''सुब्बय्याला  लागलेले  ब्राह्मण  भूत  मांत्रिक  होते.  त्याने  माझ्या  घराला  मांत्रिक  प्रयोगाने  दग्ध  केले.''

वेताळ  वगैरे  अनेक  क्षुद्रशक्तींना  प्रसन्न  करण्यास,  अनेक  प्रकारच्या  पूजा  कराव्या  लागतील,  त्यासाठी  अधिक  धनराशी  लागेल  असे  त्याने  सूचित  केले.  मंत्रातंत्राचा  काहीच  उपयोग  नव्हता.  मांत्रिक  धनाच्या  आशेने  असे  वागत  होता  हे  मला  माहित  होते.  विधिचे  विधान  मानून  मान  खाली  घालून,  सुब्बय्याच्या  पत्नीला  माझीच  पत्नी  म्हणून  स्वीकार  करण्याची  वेळ  आल्यास  त्याच्यापेक्षा  अधिक  लाजिरवाणी  परिस्थिती  काय  असणार  ?  त्यापेक्षा  मोठा  विश्वासघात  कोणता  असू  शकतो.  याची  मला  खंत  वाटली.  विधी  माझ्या  जीवनाशी  एवढया  क्रूरतेने  का  खेळत  आहे  समजत  नव्हते,  उलगडत  नव्हते.  माझे  काळीज  कापत  असल्याचा  अनुभव  येत  होता.  मी  सुब्बय्याच्या  आई-बापांना  म्हणालो,  ''माझे  माय  बाप  !  तुमच्या  सर्व  स्थावर  संपत्तिची  विक्री  करून  या  मांत्रिकाच्या  मायाजाळात  पडू  नका.  माझी  तब्बेत  चांगलीच  आहे.  मी  तुम्हाला  आई-बापासारखेच  मानतो.''  तेवढयावरच  मला  मांत्रिकाकडून  मुक्ती  मिळाली.  सुब्बयाचे  आई-वडील  अत्यानंदीत  झाले.  त्यांच्या  डोळयातील  आनंद  पाहून  माझे  डोळे  पण  ओले  झाले.  परस्त्री  मातेसमान  असते  म्हणून  येणाऱ्या  संकटातून  माझी  रक्षा  करावी.  धर्म  भ्रष्ट  होऊ  देऊ  नये,  अशी  अत्यंत  दीनपणे  मनातल्या  मनातच  श्रीपादांची  प्रार्थना  करीत  होतो.

माझा  इलाज  सुरू  झाल्यावर  आठव्या  दिवशी  माझी  सेवा  करणाऱ्या  सुब्बय्याच्या  पत्नीला  बघून  म्हणालो.  ''माझ्या  बाबतीत  तू  काय  समजतेस  ?  मी  खरा  खरा  सुब्बय्याच  आहे  यावर  तुझा  विश्वास  आहे  का  ?''  त्यावर  ती  म्हणाली.  ''मी  दोन  वर्षाची  असताना  माझे  लग्न  झाले.  आता  माझे वय  22  वर्ष  आहे.  आपण  माझे  पती  आहात  का  नाही  ते  त्या  परमेश्वरालाच  माहीत,  दुसऱ्या  कोणालाहि  माहित  नाही.  नूतन  यौवनांत  पदार्पण  केलेल्या  पत्नीस  पाहून  पुरूष  स्थिर  राहू  शकत  नाही.  आपण  इतका  त्रास  सहन  करीत  असताना  सुध्दा  मला  पत्नी  या  नात्याने  स्विकारले  नाही.  स्पर्श  केला  नाही,  हे  सगळे  उत्तम  संस्कार  असणाऱ्यालाच  शक्य  आहे.  तुमच्या  विषयी  मला  कसलीच  भावना  नाही.  मी  कुळाचराला  अनुसरून  धर्मानेच  जीवन  कंठायचे ठरवले  आहे.  आपण  माझे  पति  असल्यास  या  चरण  दासीला  सोडून  जाऊ  नये.  माझा  नवरा  पळून  जाऊन  20  वर्षे  झाली.  माझा  विवाह  बालपणातच  झाला  तो  मला  नकळतच.  या  कारणास्तव  तुम्ही  मला  आपली  पत्नी  म्हणून  स्वीकार  करू  शकता.  मी  तुमच्या  मार्गदर्शनाखालीच  राहीन.  तुम्ही  नेहमी  स्मरण  करता  ते  श्रीपाद  श्रीवल्लभांचे  स्मरण  करीन.  त्या  सद्गुरुंच्या  चरणी  ह्या  जटिल  समस्येचे  धर्मसम्मतिपूर्वक  निवारण  करावे  अशी  मी  प्रार्थना  करीन.''

तिचे  वक्तव्य  मला  युक्ति   संगत  असल्यासारखे  वाटले.  मी  म्हणालो,  ''श्रीपाद  श्रीवल्लभ  साक्षात  दत्तप्रभूच  आहेत.  या  कलियुगात  त्यांनी  अवतार  घेतला  आहे.  प्रस्तुत  ते  कुरवपुरांतच  आहेत.  आपल्या  भक्तीभावास  अनुसरून  त्यांचे  वर्तन  असते.  श्रीपाद  श्रीवल्लभांना  सद्गुरु  या  रूपाने  स्मरण  केल्यास  सद्गुरुसारखेच  अनुभव  येतात.  परमात्मा  या  रूपाने  स्मरण  केल्यास,  तेच  परमात्मा  आहेत  असे  सिध्द  करतात.  तू  सुध्दा  श्रीपाद  श्रीवल्लभांचे  नामस्मरण  कर.  अचूक  कर्तव्याचा  बोध  होईल.  सगळयांना  आनंदमय  परिणाम  लाभतील.''

त्या  दिवशी  वाडयात  भविष्य  सांगणारा  एक  माला  जंगम  आला.  जंगमाच्या  वेशात  असलेल्या  त्या  माणसाकडे  ताडपत्री  ग्रंथ  होते.  आमच्या  वाडयातील  सर्वजणांना  थोडयाच  कालावधीत  तो  फार  आदरणीय  झाला.  त्याला  भेटलेल्या  सर्व  भाविकांना  तो  भूत  भविष्याची  माहिती  अत्यंत  अद्भूत  प्रकारे  सांगत  असे.  त्याच्याजवळचे  ताडपत्र  ग्रंथ  हे  नाडी  ग्रंथ  असून,  त्याला  रमलशास्त्र  असे  नाव  होते.  त्यातील  विषय  अचूक  असून  त्यात  सांगितलेल्या  घटना  बरोबर  घडतात  असे  तो  सांगत  असे.  सुब्बय्याच्या  जनकांच्या  समजूतीसाठी  तो  आमच्या  घरीसुध्दा  आला.  माझ्या  हातात  थोडया  कवडया  देऊन  त्या  खाली  टाकण्यास  सांगितल्या,  त्यानंतर  गणित  घालुन  त्याच्या  ताडपत्राच्या  ग्रंथातून  एक  पत्र  काढून  त्याने  वाचण्यास  सुरूवात  केली.  ''प्रश्न  केलेला  माणूस  शंकरभट्ट  नावाचा  कन्नड  ब्राह्मण  आहे.  दत्तावतारी  श्रीपाद  श्रीवल्लभांच्या  चरित्राचे  लिखाण  हाच  करेल.  पूर्वजन्मी  हा  आणि  याचा  एक  मित्र  कंदुकूर  ह्या  शहराच्या  थोडयाच  दूर  असलेल्या  मोगलीचर्ला  ह्या  ग्रामात  जन्मले.  जुगार  खेळण्यात  त्यांची  विशेष  आसक्ती  होती.  त्या  ग्रामात  एक  प्रसिध्द  स्वयंभू  दत्ताचे  देऊळ  होते.  हा  श्री  दत्त  देवालयाच्या  अर्चकाच्या  भावाच्या  रूपात  जन्मास  आला.  मोठ्या  भावाच्या  अनुपस्थितीत  पूजा  वगैरे  हाच  करीत  असे.  दत्त  देवालयाच्या  प्रांगणात  हा  आणि  याचा  मित्र  दोघेही  जुगार  खेळण्यात  मग्न  असत.  हा  किती  अनाचार  आहे  याची  त्यांना  खंत  नव्हती  त्याच्या  मित्राबरोबर  एके  दिवशी  खेळताना  त्याने  विचित्र  अशी  अट  ठेवली .  त्याचा  मित्र  जिंकल्यास  हयाने  खेळात
हरलेली  रक्कम  द्यावी  आणि  हा  जिंकला  तर  त्याच्या  मित्राने  आपल्या  पत्नीस  ह्याला  द्यावे  असे  ठरले .  या  कराराला  साक्ष  म्हणजे  हे  दत्तप्रभूच  आहेत  असे  मानून  प्रमाण  करून  जुगार  खेळण्यास  सुरूवात  केली.  ''
आपल्या  समक्ष  अत्यंत  वाईट  खेळ  चालू  असलेला  दत्तप्रभू  बघतच  होते.  खेळामध्ये  शंकरभट्ट  विजयी  झाला.  शंकराच्या  मित्राने  त्याच्या  पत्नीस  त्याला  देण्याचे  नाकारले.  भांडण  मोठ्या  माणसांपर्यंत  गेले.  कुळातील  सुज्ञ  लोक  एकत्रित  जमले.  पवित्र  अशा  दत्तप्रभूंसमोर  एवढे  मोठे   दुष्कृत्य  घडले,  ही  अत्यंत  खेदपूर्ण  घटना  होती.  परस्त्रीचा  मोह  करूनन   तिला  वक्रमार्गाने  प्राप्त  करून  घेण्याची  इच्छा  दर्शविल्या  बद्दल  शंकर  याच्या  डोक्यावर  गरम  गरम  तेल  घालावे.  तसेच  खेळामधे  आपल्या  पत्नीस  पणाला  लावलेल्या  ह्यांच्या  मित्राला  नपुंसकपणा  येण्यासारखे  अंगछेदन  करावे.  असे  केल्यावर  त्या  दोघांना  ग्रामातून  बहिष्कृत  करावे  असा  न्याय  सूज्ञांनी  दिला.  त्यांच्या  न्यायाची  अंमलबजावणी  करण्यात  आली.  शंकरभट्टाने  त्याच्या  पूर्वजन्मी  थोडाकाळ  दत्त  सेवा  केल्यामुळे  ह्या  जन्मी  देवभक्ति   असलेला  जन्म  प्राप्त  झाला.  त्याचा  मित्र  सुब्बय्या  या  नावाने  क्षौर  कर्म  करणाऱ्यांच्या  घरी  परमपवित्र  अशा  तिरुपती  क्षेत्रात  जन्मला.  त्याचे  मन  चंचल  झाल्यामुळे  वेडा  होऊन  लग्न  झाल्यानंतर  पळून  गेला.  भोळसर  असलेली  सुब्बय्याची  पत्नी  निर्दोष  आहे.  तिच्या  पातिव्रत्याच्या  प्रभावाने  सुब्बय्याच्या  मनाची  चंचलता  कमी  होऊन  हे  रमल  शास्त्र  ऐकल्याच्या  दुसऱ्या  दिवशी  सुब्बय्या  परत  येईल.  त्या  दिवशी  शंकरभट्टाची  सुटका  होईल.  शंकरभट्टाला  असलेली  साडेसाती  श्रीपाद  श्रीवल्लभांच्या  अनुग्रहाने  साडेसात  दिवसांतच  निघून  जाईल.  भगवंताला  साक्ष  ठेऊन  अनुचित  संकल्प  केल्यास  अथवा,  अधर्म  केल्यास  दत्तप्रभूंच्याकडून  कठींनातील कठीण   शिक्षेस  पात्र  होतात.  सुब्बयाच्या  मन  चंचलतेच्या  परिहारास्तव  शंकरभट्टाच्या  पुण्यातील  थोडा  भाग  खर्च  झाल्याचे  चित्रगुप्ताने  लिहिले  आहे.  कर्माचा  प्रभाव  अत्यंत  सूक्ष्म  रीतिने  काम  करीत  असतो,  ह्या  सत्याची  जाणिव  होऊन  जीवाने  सदैव  सत्कर्मच  करावे.  दुष्कर्म  कधीहि  करू  नये.  श्रीपाद  श्रीवल्लभांच्या  जन्म  पत्रिकेप्रमाणे  त्यांच्या  अवतार  समाप्ती  नंतर  थोडया  शतकांनी  त्रिपुर  देशातील  अक्षयकुमार  या  नावाच्या  जैन  मतस्थाकडून  श्री  पीठिकापुरत  श्री  प्रभूंची  माहिती  पोहोचेल.  त्या  अगोदर  विलासांची  माहिती  देणारे  'श्रीपाद  श्रीवल्लभ  चरित्रामृत '  या  नावाचा  ग्रंथ  प्रकाशीत  होईल.''

श्रीवल्लभांच्या  करुणेचे  वर्णन  कसे  करावे  ?  दुसऱ्या  दिवशीच  सुब्बय्या  स्वगृहास  परतला.  त्याच्या  मनाचे  चंचलत्व  पूर्णपणे  मिटून  तो  स्वस्थचित्त  झाला  होता.  सुब्बयाच्या  पत्नीस  मी  माझी  बहिण  मानले.  सुब्बय्याच्या  माता-पित्याची  परवानगी  घेऊन  मी  चित्तूर  जिल्हयातील  काणिपाकं  ग्रामास  पोहोंचलो. 

काणिपाकं  हे  ग्राम  चित्तूरहून  थोडयाच  अंतरावर  आहे.  त्या  ग्रामात  वरदराज  स्वामींचे  देऊळ,मणिकंठेश्वर  स्वामींचे  देऊळ,  वरसिध्दी  विनायकाचे  देऊळ  आहे.  मी  देवदर्शन  घेऊन  बाहेर  आलो.  तिथे  एक  उंच  कुत्रे  उभे  होते.  मला  भीती  वाटून  मी  वरसिध्दिविनायकाच्या  देवळात  परत
गेलो.  थोडावेळ  देवाचे  ध्यान  करून  बाहेर  आलो.  त्या  कुत्र्याबरोबर  अजून  एक  कुत्रा  तेवढयाच  उंचीचा  होता.  आज  ह्या  कालभैरवाकडून  चावणे  हे  निश्चितच  आहे  अशी  भीति  वाटली.  परत  वरसिध्दिविनायकाच्या  मंदिरात  गेलो.  मंदिरातील  पुजाऱ्याला  माझे  वर्तन  विचित्र  वाटले.  ''बाबा  तू  घटके  घटकेला  बाहेर  जाऊन  परत  मधे  येतो  आहेस  याचे  कारण  काय  ?''  असे  त्याने  विचारले.  मी  माझ्या  भीतीचे  कारण  सांगितले.  ''ते  निष्कारण  कोणाला  कांही  इजा  करित  नाहीत.  ते  एका  धोब्याचे  पाळीव  कुत्रे  आहेत.  तो  धोबी  दत्तभक्त  आहे.  श्रीपाद  श्रीवल्लभ  या  नामाने  श्रीदत्तांनी  या  भूमीवर  अवतार  घेतला  आहे,  असे  तो  सांगत  असतो.  धोब्यांना  देवालयात  प्रवेश  निषिध्द  नाही,  तरी  सुध्दा  तो  या  देवळामधे  येत  नाही.  त्याच्या  कुत्र्यास  पाठवतो .  मी  स्वामींच्या  प्रसादाचे  गाठोडे   बांधुन  देतो.  ते  घेऊन  ते  त्याला  देतात.  तू  दोनच  कुत्रे  पाहिले  असे  सांगितलेस.  एकूण  चार  कुत्रे  आल्यावरच  मी  प्रसाद  देतो.  अजून  दोन  कुत्रे  आले  का  ते  पाहू  या''  असे  तो  पुजारी  म्हणाला.  आम्ही  बाहेर  येईपर्यंत  चार  कुत्रे  होते.  पुजाऱ्यांनी  प्रसादाचे  गाठोडे   करून  दिले.  ते  चारी  कुत्रे  माझ्या  चारी  बाजुंनी  आले  आणि  त्यानी  मला  घेरले.  पुजारी  म्हणाला  ''कुत्र्यांच्या  मर्जीप्रमाणे  तू  त्या  धोब्याकडे  जा.  तुला  शुभकारकच  होईल.''

माझ्या  जीवनातील  प्रत्येक  घटना  श्रीपाद  श्रीवल्लभांच्या  निर्देशानेच  घडत  असते  असा  माझा  विश्वास  होता.  सुब्बय्याच्या  घरात  घडलेल्या  घटने  वरून  कुळ,  मत  भेद  नसावा  असे  मला  वाटले.  एक  चांडाळ  ब्राह्मणकुळात  जन्म  घेऊ  शकतो.  या  जन्मातील  ब्राह्मण  दुसऱ्या  जन्मात  चांडाळ  रूपाने  जन्म  घेऊ  शकतो.  मानव  आपण  केलेल्या  पापपुण्याचे  गाठोडे  घेऊन  जन्मजन्मांतराच्या  कर्म  प्रवाहात  वाहत  जात  असतो
शंकरभट्ट  आणि  तिरुमलदासांचा  संवाद 
मी  धोब्याच्या  राहत्या  गल्लीत  आलो.  तिरुमलदास  असे  नाव  असलेला  तो  रजक  70  वर्षाचा  म्हातारा  होता.  तो  त्याच्या  झोपडीतून  बाहेर  आला.  मी  घरात  गेल्यावर  त्याने  मला  एका  पलंगावर  बसवले.  ब्राह्मणजन्माचा  माझा  अहंकार  पूर्णपणे  गेला  होता.  श्रीपाद  श्रीवल्लभांचे  भक्त   कोणीही  असले  तरी  मला  आत्मियांसारखेच  दिसत  होते.  वरसिध्दिविनायकाच्या  देवळातील  प्रसाद  तिरुमलदासाने  मला  खाण्यास  दिला.  मी  प्रसाद  ग्रहण  केला.  नंतर  तिरुमलदासाने  सांगण्यास  सुरुवात  केली.
आइनविल्लिचे  गणपतीच  श्रीपाद  श्रीवल्लभ  म्हणून  अवतरले 
ते  म्हणाले  ''बाबा  !  आजचा  दिवस  माझ्या  अत्यंत  भाग्याचा  आहे  !  आपल्या  दर्शनाचा  लाभ  घडला.  तुम्ही  माझ्याकडे  कधी  याल,  माल्याद्रीपुराचे  आणि  श्रीपीठिकापुर   येथील  विशेष  वार्ता  कधी  सांगाल  याची  उत्सुकतेने  वाट  पाहातो  आहे.  बाबा  !  शंकरभट्टा  !  वरसिध्दि  विनायकाचा  प्रसाद  घेतलास.  तू  आजच्या  दिवशीच  श्रीपाद  श्रीवल्लभांच्या  चरित्रामृताचा  श्रीगणेशा  कर.  तुला  श्रीवल्लभांचा  आशिर्वाद  कुरवपुरात  लाभेल.  तिरुमलदासाने  ह्याचा  पूर्व  वृतांत  सांगायला  सुरुवात  केली.  मी  पूर्वजन्मी एक  प्रतिष्ठित  वेद  पंडित  होतो.  परंतु  परमलोभी  होतो.  माझ्या  मृत्यूसमयी  नुकतेच  जन्मलेले  गाईचेवासरू  जुन्या  चिंधिस  चघळताना  पाहून  त्यास  जपून  ठेवण्यास  मुलांना  सूचना  दिली.  मरतेवेळी  मलिन  वस्त्रावर  नजर  ठेऊन  मी  प्राणत्याग  केला  त्यामुळे  रजकाच्या  जन्मास  आलो.  मरतेवेळी  ज्या  संकल्पाने  प्राणत्याग  होतो  त्याला  अनुसरून  त्याला  दुसरा  जन्म  मिळतो.  माझ्या  पूर्वपुण्याईनेच  गर्तपुरी  (गुंटुरू)  मंडळातील  पल्यनाडू  प्रांतातील  माल्याद्रीपुरात  मी  जन्मलो.  तेच  मल्याद्रीपुर  कालांतराने  मल्लादि  या  नावाने  ओळखले  जाऊ  लागले.  त्या  ग्रामात  मल्लादि  नावाची  दोन  घराणी  होती.  मल्लादि  बापन्नावधानि  या  नांवाचे  महापंडित  हरितस  गोत्राचे  होते.  मल्लादि  श्रीधरअवधानी  या  नांवाचे  महापंडित  कौशिक  गोत्रीक  होते.  श्रीधरअवधानी  यांची  बहिण  राजमांबा  हिचा  विवाह  बापन्नावधानी  यांच्या  बरोबर  झाला.  गोदावरी  मंडलांतर्गत  असलेल्या  ''आइनविल्लि''  या  ग्रामात  झालेल्या  गणपती  महायागास  दोघेही  गेले  होते.  शास्त्राप्रमाणे  शेवटच्या  आहुतीचा  गणपती  आपल्या  सोंडेत  स्विकार  करील  आणि  आपले  स्वर्णकांतीयुक्त   स्वरूपाचे  दर्शन  देईल  असे  पंडितांचे  मत  होते.  यज्ञाच्या  शेवटी  स्वर्णमयकांतीने  गणपतीने  दर्शन  दिले.  शेवटची  आहुती  आपल्या  सोंडेत  घेतली  आणि  मी  स्वत:  संपूर्ण  कलेने  गणेशचतुर्थीच्या  दिवशी  श्रीपाद  श्रीवल्लभ  रूपाने  अवतार  घेईन  असे  वचन  दिले.  यज्ञास  आलेले  सगळेच  लोक  आश्चर्यचकित  झाले.  त्या  सभेत  तिघे  नास्तिक  होते.  ते  म्हणाले,  ''दिसते  ते  सगळेच  इंद्रजाल  आहे  की  महेंद्रजाल  आहे,  पण  गणपती  मात्र  नाही.  तसे  असलेच  तर  परत  एकदा  त्याचे  दर्शन  घडवून  आणावे.''
काणिपूर  विनायकाचा  महिमा 
होमकुंडातील  विभूतीने  मानवाचा  आकार  घेतला.  त्यानंतर  ती  महागणपती  स्वरूपात  रूपांतरित  झाली.  ते  रूप  बोलु  लागले.  ''मुर्खानो  !  त्रिपुरासुराच्या  वधाच्या  वेळी  शिवाने,  बलिचक्रवर्तीचा  निग्रह  करण्यापूर्वी  तसेच  शिवाचे  आत्मलिंग  घेऊन  जाणाऱ्या  रावणास  विरोध  करते  वेळी  भगवान  विष्णुने,  महिषासुराचा  वध  करण्याच्या  समयी  पार्वतीने,  भूभार  घेण्यापूर्वी  आदिशेषाने,  सर्व  सिध्दी  सिध्द  होण्यापूर्वी  सिध्दमुनींनी,  प्रंपचावर  विजय  साधण्याच्या  निमित्ताने  मन्मथाने,  याच  प्रमाणे  सकल  देवतांनी  माझी  आराधना  करूनच  अभीष्ट  प्राप्त  केले.  सगळया  शक्तींचे  मीच  भांडार  आहे.  मी  सर्वशक्तिमान  आहे,  राक्षस  शक्ति  सुध्दा  माझ्यामध्येच  आहे.  सर्व  विघ्नकर्ता  मीच,  सर्व  विघ्नहर्ता  सुध्दा  मीच  आहे.  दत्तात्रेय  म्हणजे  कोण  समजलात  ?  हरिहर  पुत्र  असलेला  धर्मशास्ता  तोच.  विष्णुरूपात  ब्रह्मारुद्र  रूप  विलीन  झाले  तेच  दत्तरूप  होय.  धर्मशास्तारूपात  गणपती,  षण्मुख  रूप  विलीन  झालेले  हे  रूप  सुध्दा  दत्तरूपच  आहे.  दत्तात्रेय  हे  सर्वकाळ  त्रिमूर्ति  स्वरूपच  असतात.  श्रीपाद  श्रीवल्लभ  रूपात  महागणपती  असल्याने  गणेशचतुर्थीच्या  दिवशीच  त्यांचा  अवतार  होईल.  त्यांच्या  मधे  सुब्रह्मंण्याचे  तत्त्व  असल्याने  ते  केवळ  ज्ञान  अवतार  म्हणून  ओळखले  जातील.  धर्मशास्ता  तत्त्वामुळे  ते  रूप  समस्त  धर्म,  कर्माचे  आदि,  आणि  मूळ  असे  समजले  जातील.  हा  अवतार  माता-पित्याच्या  संयोगाचे  फळ  नसेल.  ज्योतिस्वरूपच  मानवाकृतीचे  रूप  घेईल.'' 
श्री  गणपती  पुढे  म्हणाले  मी  तुम्हाला  शाप  देत  आहे.  सत्यस्वरूप  पाहुन  सुध्दा  ते  असत्यआहे  असे  म्हणालात,  त्यामुळे  तुमच्या  पैकी  एक  आंधळा  जन्मेल.  सत्यस्वरूपाची  प्रशंसा  न  करता  टिंगल  केल्यामुळे  तुमच्या  पैकी  एक  मुका  जन्मेल.  एवढा  जनसमुदाय  निजभक्त ,  त्या  सत्याच्या  बाबतीत  सांगत  असता  दुर्लक्ष  करून  न  ऐकल्यामुळे  तुमच्यापैकी  एक  बहिरा  जन्मेल.  तुम्ही  तिघे  बंधुरूपाने  जन्माल.  माझ्या  स्वयंभू  मूर्तीचे  दर्शन  घेतल्यावरच  तुम्ही  दोषरहित  व्हाल.

बाबा  !  ते  तिघेही  या  काणिपुरात  भावंडाच्या  रूपात  जन्मले.  त्रिमूर्तिना  दूषण  दिल्यास,  घोर  अनर्थ  होतो.  ही  तीन  भावंडे,  एक  एकर  जमिनीत,  याच  ग्रामात  उत्पन्न  काढीत  असत.  त्या  शेतात  पायथ्याला  एक  विहीर  होती.  मोटेच्या  सहाय्याने  पिकांना  पाणी  देण्याची  सोय  केली  होती.  एका  वर्षी  दुष्काळ  पडला.  जमिनीतील  पाणी  वाळून  गेले.  एके  दिवशी  विहिरीत  असलेले  पाणी  सारे  खर्च  झाले,  फावडा  घेऊन  तिघेही  वाळू  काढण्याच्या  प्रयत्नात  होते.  त्या  पाण्याखालील  भागात  असलेल्या  दगडावर  फावडा  लागुन रक्ताचा  फवारा  वर  आला.  रक्त   हाताला  लागल्याने  मुक्याला  वाचा  फुटली.  पाणीसुध्दा  विहीरीत  यथाविधी  भरू  लागले.  पाण्याच्या  स्पर्शाने  बहिऱ्याचा  दोष  गेला.  तिसऱ्या  आंधळयाने  त्या  पाण्यातील  दगडाला  स्पर्श  केल्यामुळे  त्याचे  अंधत्व  नाहीसे  झाले.  त्या  स्वयंभू  विनायकाच्या  दगडी  मूर्तीच्या  डोक्यावर  फावडा  लागून  रत्तच्स्रावास  आरंभ  झाला.  ती  स्वयंभू  मूर्ती  बाहेर  काढण्यात  आली.

त्या  वरसिध्दी  विनायकाची  प्रतिष्ठापना  करण्यास  सत्यऋषिश्वर   असे  नामांतर  झालेले  बापन्नावधानी  आणि  त्यांचा  मेव्हणा  श्रीधरावधानी  या  ग्रामास  आले  होते.  वरसिध्दी  विनायक  त्यांना  म्हणाले.  ''महाभूमी  मधून  या  लोकात  आलो.  पृथ्वीतत्त्वावर  अवतार  घेतला.  हे  तत्त्व  कालांतराने  अनेक  रूपांत  रूपांतर  होईल.  जलतत्त्वात,  अग्नीतत्त्वात,  वायुतत्त्वात,  आकाशतत्त्वात  माझे  अवतरण  झालेलेच  आहे.  आइनविल्ली  मधे  तुम्ही  केलेल्या  महायज्ञातील  भस्मानेच  हे  रूप  धारण  केले.  नंतरच्या  कर्तव्याचे  आदेश  देतो.  श्रीशैल्यामधे  कळा  कमी  आहे.  सूर्यमंडळातील  तेजाचा  तेथे शक्तिपात   केला  पाहिजे.  तुम्ही  श्रीशैल्यामधे  शक्तिपात  केल्याच्या  दिवशीच  गोकर्णामधे,  काशीमधे,  बदरीमधे,  केदारामधे,  एकाच  वेळी  माझ्या  विशेष  अनुग्रहाने  शक्तिपात  होईल.  श्रीपाद  श्रीवल्लभांच्या  अवतरणाचा  समय  निकट  येत  आहे.  श्रीधरा  तुझ्या  घरचे  नांव  श्रीपाद  म्हणून  बदलत  आहे.  कौशिक  गोत्रिक  तुमचे  वंशज  आजपासून  श्रीपाद  या  अडनावाने  ओळखले  जातील.''

बाबा  !  शंकरा  !  मल्यादिपुरातून  सत्य  ऋषिश्वर  आणि  श्रीधर  पंडित  पीठिकापुरत  निवास  करण्यास  गेले.  मी  श्रीपाद  श्रीवल्लभांच्या  अनेक  बाललीला  पाहिल्या.  उद्या  मी  तुला  त्या  सविस्तर  सांगेन.  माझ्या  पहिल्या  बायकोपासून  मला  एक  मुलगा  झाला.  त्याचे  नांव  रविदास  आहे.  तो  कुरवपुरात  राहात  आहे.  श्रीपादांची  यथामतीने  सेवा  करीत  असतो.  मी  श्रीपाद  प्रभूंच्या  आज्ञेनुसार  काणिपुरातच  दुसऱ्या  पत्नी  आणि  मुलाबरोबर  कुलवृत्तीला  अनुसरून  रहात  आहे.
तू  श्री  पीठिकापुरात  अनेक  महानुभावांना  भेटशील.  वेंकटप्पय्या  श्रेष्ठी  नावाच्या  व्यक्तीस  भेटशील  तेंव्हा  अनेक  महत्वाच्या  विषया  बद्दल  माहिती  मिळेल.  श्री  श्रेष्ठींना  श्रीपाद  प्रभु,  वेंकटप्पय्या  श्रेष्ठी  या  टोपण  नावाने  हाक  मारीत  असत.  श्री  श्रेष्ठींच्या  वंशावर  श्रीपादांचा  अभयहस्त  आहे.  वत्सवाई  असे  उपनाम  असलेल्या  नरसिंह  वर्मांना  सुध्दा  भेट.  त्यांचा  श्रीपादांशी  घनिष्ट  संबंध  आहे.  तुझ्याकडून  रचल्या  जाणाऱ्या  श्रीपादांच्या  चरित्रास  श्रीचरणांचा  आशिर्वाद  लाभेल.  तू  लिहीलेल्या  ग्रंथाखेरीज  दुसरा  कोणताही  ग्रंथ  श्रीपादांचे  चरित्र  संपूर्ण  रीतिने  माहिती  देणारा  असणार  नाही,  ही  श्री  चरणांची  आज्ञा  आहे. 
॥  श्रीपाद  श्रीवल्लभांचा  जय  जयकार  ॥


॥  श्री  गुरुवे  नम:  ॥  ॥  श्रीपादराजं  शरणं  प्रपद्ये  ॥ 

अध्याय  -6
 

नरसावधानींचे  वृत्त
दुसऱ्या  दिवशी  सकाळी  जपध्यानादि  पूर्ण  झाल्यावर  तिरुमलदास  म्हणाले.  ''बाबा  !  श्रीपाद  श्रीवल्लभ  या  चराचर  सृष्टीचे   मूल  आहेत.  ते  वटवृक्षासारखे  आहेत.  त्यांचे  अंशावतार  सगळेच  विविधता  असलेल्या  पारंब्या  प्रमाणे  आहेत  (झाडातून  निघालेले  मूळ).  तेच  मूळ  परत  भूमीमध्ये  जाऊन  स्वतंत्र  तत्त्व  असल्यासारखे  दिसते,  परंतु  त्यांना  आधार  वटवृक्षच  असतो.  देवदानवापासून  समस्त  प्राणिमात्रांना  त्यांचाच  आधार  आहे.  त्यांच्याकडूनच  समस्त  शक्तींना  आश्रय  प्राप्त  होतो.  पुनरपि  त्या  शक्ति   त्यांच्यातच  विलीन  होत  असतात.  पर्वत  शिखरावर  पोहोचलेल्या  व्यक्तीस   सगळया  वाटा  एक  सारख्याच  वाटतात.  त्याच  प्रमाणे  सगळया  प्रकारच्या  सांप्रदायाचे  लोक  दत्ततत्त्वामधेच  समन्वय  पावतात.  प्रत्येक  प्राणीमात्रास  कांतीचे  एक  वलय  असते.  मी  पीठिकापुरत   रहात  असताना  तेथे  एक  योगी  आला.  तो  विग्रहाच्या  कांतीवलया  बद्दल  माहिती  सांगत  असे.  त्याला  व्यक्तीची  कांती  कोणत्या  रंगाची  असून  किती  दूरवर  व्यापून  आहे  ते  सांगता  येत  असे.  त्याने  श्री  कुक्कुटेश्वरालयात  येऊन  स्वयंभू  दत्ताची  सूक्ष्मकांती  किती  दूर  व्यापून  आहे  आणि  कोणत्या  रंगाची  आहे,  ह्याची  परिक्षा  करण्याचे  ठरविले  त्या  योग्यास  स्वयंभू  दत्ताच्या  ठिकाणी  श्रीवल्लभांचे  दर्शन  झाले.  त्यांच्या  मस्तकाच्या  भोवताली  विद्युल्लतेच्या  तुलनेची  धवलकांती  अप्रतिमपणे  व्यापून  होती.  त्या  धवल  कांतीच्या  भोवती  खालच्या  भागात  व्यापून  असलेल्या  निळया  रंगाच्या  कांतीचे  त्यास  दर्शन  झाले.  ती  मूर्ति  त्या  योग्यास  बघून  म्हणाली,  ''बाबा  !  दुसऱ्यांचे  सूक्ष्म  शरीर  किती  दूर  व्यापलेले  आहे  याची  माहिती  काढण्याच्या  प्रयत्नात  अमूल्य  जीवन  काळ  व्यर्थ  घालवू  नकोस.  प्रथम  तुझ्या  हिताचा  विचार  कर.  थोडयाच  दिवसात  तुझा  मृत्यू   होणार  आहे.  सद्गति  संपादन  करण्याचा  विचार  कर.  सर्व  सत्यांचा,  सर्व  तत्वमूलांचा  मूल  असलेला  दत्त  मीच  आहे.  ह्या  कलियुगांत  पादगया  क्षेत्रात  महासिध्दपुरुषांच्या,  महायोग्यांच्या,  महाभक्तांच्या  प्रेमभरित  आव्हानानेच  मी  येथे  अवतार  घेतला  आहे.''

स्वामींच्या  या  उपदेशाने  त्याच्यातील  पूर्व  वासनांचा  नाश  झाला.  सूक्ष्म  शरिराच्या  कांतीची  माहिती  मिळविण्याची  त्याची  शक्ति  श्रीवल्लभांतच  विलीन  झाली,  तो  श्रीवल्लभांचे  त्यांच्याच  स्वगृहात  दर्शन  घेऊन  धन्य  झाला.  स्वच्छ  अशी  धवलकांती  असलेले  श्रीवल्लभ  निर्मळ  असून,  संपूर्ण  योगावतार  आहेत.  निळया  रंगाची  कांती  असणारे  श्रीप्रभू  अनंत  प्रेमाने,  करुणेने  भरलेले  आहेत  आणि  ह्या  गुणांचे  हे  रंग  निदर्शक  आहेत.त्या  योग्याची  विश्रांती  झाल्यावर  श्रध्दापूर्ण  चर्चा  सुरू  झाली.  चतुर्वर्ण  विभाग  असलेल्या  सुक्ष्म  शरीराच्या  कांतीचा  भेददृष्टया  निर्णय  घ्यावा  कां  ?  किंवा  जन्मसिध्द  कुलगोत्राच्या  दृष्टीने  निर्णय  घ्यावा  ?  कोणत्या  वर्णाचा  जन्म  असला  तर  वेदोक्त  पध्दतीने  उपनयन  करावे  ?  कोणत्या  वर्णाच्या  लोकांचे  शास्त्रोक्त  म्हणजे  पुराणोक्त  उपनयन  करावे  ?  उपनयनात  भृकुटी  मध्ये  असलेल्या  तिसऱ्या  डोळयाचा  संबंध  असतो  कां  ?  नसेल  तर  कांही  विशेष  आहे  कां  ?  मेधावी  लोक  म्हणजे  काय  ?  अशी  चर्चा  बराच  वेळ  गरम  गरम  चालली  होती  परंतु  पंडितांचे  मतैक्य  होत  नव्हते. 

सत्यऋषिश्वर  या  नावाचे  मल्लादि  बापन्नावधानी  ''पीठिकापुर  ब्राह्मण  परिषदेंचे''  अध्यक्ष  होते.  त्यांना  बापन्ना  आर्य  असे  सुध्दा  लोक  श्रध्देने  म्हणत  असत.  ते  मुख्यत:  सूर्याची,  अग्निची  उपासना  करीत.  पीठिकापुरत  झालेल्या  एका  यज्ञाचे  अधिपत्य  करण्याची  त्यांना  विनंती  केली  होती.  यज्ञाच्या  शेवटी  कुंभवृष्टी  झाली,  अर्थात  वर्षा  झाली.  सकल  जन  समुदाय  आनंदला.  श्री  च्छवाई  नरसिंह  वर्मा  या  नावाच्या  क्षत्रिय  गृहस्थानी  श्री  सत्यऋषिश्वरांना  त्यांच्या  गावात  रहावे  अशी  विनंती  केली.  परंतु  यज्ञयागात  मिळालेले  धन  शिधा  तेवढेच  श्रीबापन्ना  आर्य  घेत  असत.  त्या  द्रव्यास  शुध्दी  नसेल  तर  ते  स्वीकार  करीत  नसत.  श्री  वर्मांच्या  विनंतीस  त्यांनी  नकार  दिला,  श्री  वर्मांची  अत्यंत  प्रिय  असलेली  कपिला  गाय  होती.  तीचे  नांव  गायत्री  असे  होते.  ती  भरपूर  दुध  देत  असे.  ती  अत्यंत  सुशील  आणि  साधु  स्वभावाची  होती.  एकदा  गायत्री  दिसेनासी  झाली.  कुठेतरी  हरवली.  रस्ता  विसरली  असे  वर्तमान  श्री  वर्मांना  कळाले.  श्री  बापन्ना  आर्य  ज्योतिष  शास्त्राचे  पंडित  असल्याने  वर्मांनी  त्यांना  गायत्रीच्या  क्षेम-कुशला  संबंधी  प्रश्न  केला.  तेंव्हा  ''श्यामलांबापुरम्  (सामर्लकोटा)  मध्ये  खानसाहेब  नावाचा  कसाई  आहे.  त्याच्याकडे  ती  आहे.  लगेच  न  गेल्यास  तिचा  वध  होण्याची  भीती  आहे  बापन्ना  आर्य  म्हणाले.  वर्मांनी  शामलांबापुरास  मनुष्यास  पाठवण्याच्या  प्रयत्नात  बापन्ना  आर्यांना  एक  अट  घातली.  बापन्ना  आर्यांच्या  वचनानुसार  गायत्री  मिळाली  तर,  वर्मानी  तीन  एकर  भूमी,  निवासास  योग्य  असे  घर  बापन्नाआर्यांना  त्यांच्या  पांडित्याचा  बहुमान  म्हणून  द्यावे.  बापन्ना  आर्यांनी  त्याचा  अंगिकार  न  केल्यास  गोहत्येचे  पातक  प्राप्त  होईल.  बापन्ना  आर्य  संकट  स्थितीत  पडले.  त्यांनी  हे  दान  जर  नाही  घेतले  तर,  वर्मा  त्या  गाईची  हत्या  होऊ  देतील.  त्यामुळे  गोहत्येचे  पातक  लागेल.  गोहत्या  पातकापेक्षा  पंडित  बहुमानाचा  स्विकार  करणेच  श्रेयस्कर  ठरले   आणि  गायत्रीची  रक्षा  झाली.  पीठिकापुरवासियांचे  नशीब  उघडले.  श्री  बापन्नावधानी  तीन  खंडी  धान्य  देणाऱ्या  भूमीचे  मालक  झाले.  त्यांना  निवसासाठी  घराची  व्यवस्था  झाली.  श्री  बापन्ना  आर्यांना  वेंकटावधानी  नावाचा  मुलगा  व  सुमती  नावाची  मुलगी  झाली.  तिच्या  जन्मपत्रिकेत  सर्व  शुभ  लक्षण  असून  ती  चालते  वेळी  महाराणीस  लाजवील  अशी  चाल  आणि  लचक  असल्या  कारणाने  सुमती  महाराणी  असे  तिचे  नामकरण  झाले.

श्रीबापन्ना  आर्यांची  कीर्ति  थोडयाच  काळात  दाही  दिशांना  पसरली.  घंडिकोटा  अडनावाचा  अप्पललक्ष्मी  नरसिंहराज  शर्मा  नावाचा  भारद्वाज  गोत्री,  अपस्तंभ,  वैदिकशाखेचा  एक  बालक
पीठिकापुरांत  आला.  त्यांच्या  घरी  कालाग्निशमन  नावाने  ओळखली  जाणारी  दत्ताची  मूर्ति  होती.  ती  दत्तमूर्ति  पुजेच्या  वेळी  स्पष्ट  बोलत  असे.  आदेश  सुध्दा  देत  असे.  लहाणपणीच  अप्पल  राजू  शर्माचे  मातृ –पितृ  छत्र  हरवले  असल्याने  तो  पोरका  झाला  होता.  पूजा  समयी  कालाग्निशमनाने  ''तू  पीठिकापुरत  जाऊन  हरितस  गोत्रिक,  अपस्तंभ  सूत्राच्या  वैदिक  शाखेचे  मल्लादि  बापन्नावधानी  यांच्या  कडे  विद्याभ्यास  करावा''  असा  आदेश  दिला.  श्री  बापन्ना  आर्यानी  दत्ताच्याआदेशानुसार  आपल्या  घरी  विद्यार्थी  म्हणून  आलेल्या  राजशर्मास  माधुकरी  न  मागू  देता,  आपल्याच  घरात  भोजनाची  व्यवस्था  केली.  श्री  बापन्ना  आर्य  शनिप्रदोष  समयास  शिवाराधना  करीत  असत.  घरातील  स्त्रिया  शनिप्रदोषादिवशी  शिवाचे  व्रत  करीत  असत.  पूर्वीच्या  काळी  नंदयशोदेने  शनिप्रदोष,  शिवाराधना  केल्यामुळेच  साक्षात्  श्रीकृष्णाचे  लालन  पालन  करण्याचा  सुयोग  घडून  आला.  बापन्ना  आर्याबरोबर  सुदैवाने  श्री  नरसिंह  वर्मा,  श्री  वेंकटप्पैय्या  श्रेष्ठी,  आणि  थोडे  प्रमुख  वैश्य  लोक  सहभागी  होत.
श्री  कुक्कुटेश्वर  स्वामींच्या  मुखातून  निघालेली  वाणी

सुमती  आणि  अप्पलराजुचा  विवाह 
एके  वेळी  शनिप्रदोश   शिवाराधना  झाल्या  नंतर,  श्री  कुक्कुटेश्वराच्या  शिवलिंगामधुन  विद्युत्कांति  प्रकाशत  होती.  त्यावेळी  त्यातून  वाणी  झाली.  ''बाबा  !  बापनार्या,  नि:संदेहपणे  तुझी  मुलगी  सुमती  महाराणीस  अप्पलराजु  शर्मास  देऊन  विवाह  कर,  त्यामुळे  लोककल्याण  होईल.  हा  दत्तप्रभूंचा  निर्णय  आहे.  ह्या  महानिर्णयाचे  उल्लंघन  करण्याचा  ह्या  चराचर  सृष्टीमध्ये  कुठल्याही  व्यक्तीस  अधिकार  नाही.''  ही  देववाणी  वेंकटप्पया  श्रेष्ठीला  नरसिंह  वर्माला,  तेथे  असणाऱ्या  सर्व  जन  समुदायास  ऐकण्यात  आली.  सगळे  आश्चर्यचकित  झाले.

गोदावरी  मंडलांतर्गत  आइनविल्ली  ह्या  गावातील  राजवर्माचे  बंधुमित्र  परिवारास  वर्तमान  पाठवले.  विवाहाचा  निर्णय  झाला.  राजशर्माला  घरदार  नव्हते.  त्यामुळे  थोडा  विचार  चालला  होता.  श्री  वेंकटप्पा  श्रेष्ठी  म्हणाले,  ''मला  पुष्कळ  घरे  आहेत  त्यापैकी  एखादे  मी  राजशर्मास  देईन.''  राजशर्मा  दान  घेण्यास  तयार  नव्हते.  श्री  श्रेष्ठींनी  राजशर्मांच्या  सोयऱ्यांबरोबर  बोलून  राजशर्माला  मिळणाऱ्या  वडिलोपार्जित  गृहभागाची  किंमत  लावली.  ती  एक  वराह  (जुन्या  काळातील  नाणे)  ठरविली  गेली.  श्री  श्रेष्ठींच्या  घराची  किंमत  बारा  वराह  निश्चित  केली.  अकरा  वराह  देण्यास  माझ्याकडे  एक  पै  पण  नाही  असे  राजशर्मा  म्हणाले.  तसे  असेल  तर  मी  माझ्या  घराची  किंमत  1  वराह  मात्रच  ठरवून  विकतो.''दान  घेण्यास  तुम्हास  संकोच  असेल  तर  1  वराह  मला  देऊन  हे  घर  विकत  घ्या''  असे  श्रेष्ठी  म्हणाले.  श्रेष्ठीनी  जे  सांगितले  ते  धर्मसम्मत  आहे  असा  सगळयांनी  होकार  दिला.  श्री  सुमती  महाराणी  आणि  श्री  अप्पल  लक्ष्मी  नरसिंह  शर्मा  यांचा  विवाह  महापंडितांच्या  वेदघोषाने,  मंगल  वाद्याच्या  गजरात  मोठ्या  थाटामाटात  पार  पडला.  श्रीपाद  श्रीवल्लभांचा  अवतार  अज्ञानाच्या  अंधकाराला  दूर  करण्यासच  झाला  आहे.  त्या  कारणाने  श्री  प्रभूंनी  कालदेवतेला,  कर्मदेवतेला  शाप  दिला.  त्या  शापास  अनुसरून  अज्ञानांधकाराचे  प्रतिक  स्वरूप  जन्मांध  शिशु,  आणि  अप्राकृतिक
प्रगतिचे  स्वरूप  दर्शविणारे  लंगडे  बालक  अशी  दोन  बालके  राजशर्मास  प्राप्त  झाली.  आपली  दोन्हि  मुले  अशा  रीतिने  अपंग  असल्याने  सुमति  आणि  राजशर्मा  अत्यंत  दु:खी  होते.  आइनविल्लि  गावांत  एक  प्रसिध्द  विघ्नेश्वराचे  देऊळ  आहे.  श्रीराज  शर्मा  यांच्या  दु:खाचा  परिहार  करण्यासाठी  त्यांचे  नातेवाईक  तेथील  महाप्रसाद  पीठिकापुरात  घेऊन  आले.  सुमती  आणि  राजशर्मानी  तो  प्रसाद  आदराने  घेतला.  त्या  दिवशीच  रात्री  सुमती  महाराणीला  स्वप्नात  ऐरावताचे  दर्शन  झाले.  नंतर  काही  दिवस  शंख,  चक्र,  गदा,  पद्म,  त्रिशूल,  विविध  देवतेचे,  ऋषींचे ,  सिध्दपुरुषांचे,  योग्यांचे  अशी  अनेक  दर्शने  तिला  स्वप्नात  होत  होती.  कांही  दिवसांनी  जागृतास्थेत  सुध्दा  तिला  दिव्य  दर्शन  होऊ  लागले.  डोळे  झाकले  कि  पडद्यावरील  चित्रपटासारखे  दिव्यकांतीमय  तपसमाधीत  मग्न  असलेले  योगी,  मुनी,  अद्भुत  दर्शन  देत.
देवतांचे  जन्मनक्षत्र  आणि  सुमतीच्या  प्रसवसमयाचे  नक्षत्रात

असलेला  संबंध 
सुमती  महाराणीने  आपल्या  पित्यास  दिव्य  अनुभवाबद्दल  सविस्तर  सांगितले.  ते  म्हणाले,  ''ही  सर्व  लक्षणे  महापुरुषाच्या  जननाचे  शुभसूचक  आहेत.''  सुमती  महाराणीचे  मामा  श्रीधर  पंडित  म्हणाले  ''बाई  !  सुमती  !  रवि  (सूर्य)  चे  जन्मनक्षत्र  विशाखाचा  आणि  श्रीरामावताराचा  संबंध  आहे.  कृतिका  हे  चंद्राचे  जन्मनक्षत्र  आहे.  ह्याचा  आणि  श्री  कृष्णावताराचा  संबंध  आहे.  पूर्वाषाढा  या  नक्षत्रावर  जन्मलेल्या  अंगारकाचा  श्रीलक्ष्मीनरसिंह  अवताराशी  संबंध  आहे.  श्रवण  नक्षत्रावर  जन्मलेल्या  बुधाचा,  बुध्दावताराशी  संबंध  आहे.  पूर्वाफाल्गुनी  नक्षत्रावर  जन्मलेल्या  गुरुचा  विष्णुअंशाशी  संबंध  आहे.  पुष्य  नक्षत्रावर  जन्मलेल्या  शुक्राचा  भार्गवरामाशी  संबंध  आहे.  रेवती  नक्षत्रावर  जन्मलेल्या  शनिचा  कुर्मावताराबरोबर  संबंध  आहे.  भरणी  नक्षत्रावर  जन्मलेल्या  राहूचा  वराह  अवताराशी  संबंध  आहे.  आश्लेषा  नक्षत्रावर  जन्मलेल्या  केतुचा,  मच्छावताराशी  संबंध  आहे.  तू  मला  प्रश्न  केलेला  समय  दैवी  रहस्याशी  संबंधित  आहे.  कोटयावधी  ग्रहांना,  नक्षत्रांना  ब्रह्मांडाच्या  स्थिती  गतीला  निर्देश  देणारे  दत्तप्रभूच  जन्मास  येतील  असे  मला  निश्चित  वाटते.''
दत्तप्रभु  हे  नित्य  वैभव  विभूति 
आपले  दिव्य  अनुभव  आणि  श्रीधर  पंडित  यांचे  मत  सुमती  महाराणीने  राजशर्मास  सांगितले.  तेव्हा  राजशर्मा  म्हणाले,  ''मी  पूजा  करते  समयी  कालाग्नीशमन  दत्तांना  विचारतो.  कालाग्नीशमन  दत्तात्रेयांची  पूजा  होत  असता  कोणत्याहि  माणसाने  ती  पाहू  नये  असा  नियम  आहे.  पूजेनंतर  दत्त  प्रभु  मानवाच्या  रूपात  समोर  बसून  बोलतात.  नंतर  परत  त्या  मूर्तिमध्ये  विलीन  होतात,  हा  रोजचा  आमचा  नियम  आहे.  सामान्य  विषय  किंवा  स्वार्थभरित  समस्या  आम्ही  दत्ताला  निवेदन  करीत  नाही.''  त्या  दिवशी  पूजे  समयी  दत्तमहाराज  प्रसन्न  होते.  पूजेनंतर  ते  मानवी  रूपात  समोर  बसले  आणि  श्रीधरा  !  या  !  असे  बोलविले.  दत्तमूर्तीमधून  एक  रूप  बाहेर  पडले  आणि  त्यांच्या  समोर  ध्यानस्थ  बसले.  परत  आपल्या  बोटाने  संकेत  करीत  श्रीधरा  !  या  !  असे  म्हणाले.  तत्काळ  ते  रूप त्यांच्यातच  विलीन  झाले.  राजशर्माला  हे  सगळेच  आश्चर्यजनक  होते.  श्रीदत्तप्रभू  म्हणाले,  ''तू  आता  पाहिलेले  रूप  येणाऱ्या  शताब्दीतील  येणारा  एकुलता  एक  अंशावतारच  आहे.  माझ्यात  लीन  झालेल्या  जीवनमुक्ताना  सुध्दा  मी  बोलावताच  यावे  लागते.  आणि  जा  अशी  आज्ञा  झाल्यास  पडद्याआड  झाल्यासारखे  जावे  लागते.  माझ्या  आज्ञेचे  पालन  करणे  त्यांना  चुकतच  नाही.  माझ्या  लीला  विभूति  केवळ  भूमिवरच  परिमित  नाहीत.  हे  ब्रह्मांड  सारेच  माझ्या  हातातील  खेळण्याच्या  चेंडुसारखे  आहे.  मी  एका  पायाने  लत्ताप्रहार  केल्यास  कोटयावधी  योजने  पार  करतो.  मी  जन्म  मृत्यूच्या  अतीत  आहे,  असे  म्हणत  श्री  प्रभूनी  राजशर्माच्या  भूमध्यांत  स्पर्श  केला.  लगेच  राजशर्माला  पूर्वजन्माची  स्मृति  झाली.  त्याने  एका  युगात  विष्णुदत्त  या  नावाने  जन्म  घेतला  असून  त्याची  पत्नी  सुमतीने  सोमदेवम्मा  नावाने  जन्म  घेतला  होता  असे  ज्ञात  झाले.  श्री  दत्तमहाराज  पुढे  म्हणाले,  मी  दत्त  या  रूपाने  दर्शन  देऊन  तुमची  काय  इच्छा  आहे  असे  विचारले  होते.  त्यावेळी  पितृश्राध्दाच्या  दिवशी  जेवायला  यावे  अशी  विनंती  तुम्ही  केली  होती.  सूर्याग्नि  बरोबर  मी  श्राध्दाचे  जेवण  केले.  तुमच्या  पितृदेवतांना  शाश्वत  ब्रह्मलोकांची  प्राप्ति  करून  दिली.  मी  श्रीपाद  श्रीवल्लभ  या  नावाने  अवतार  घेऊन  गेल्या  100  वर्षापासून  ह्या  भूमीवर  योग्यांना,  महापुरुषांना  दर्शन  देतच  आहे.  पीठिकापुरत  सवितृकाठक  चयन  (होम)  भारद्वाज  महार्षिने  त्रेतायुगात  केला  होता.  तेव्हाचे  त्या  होमाचे  भस्म  पर्वतासारखे  जमून  बसले.  कालांतराने  ते  भस्म  द्रोणागिरी  पर्वतावर  शिंपडले  गेले.  मारूती  द्रोणागिरी  पर्वत  घेऊन  जात  असताना  एक  छोटा  भाग  गंधर्वपुरात  (गाणगापुर)  पडला.  गंधर्वनगर  भीमा,  अमरजा  पवित्र  नद्याचा  संगम  प्रदेश  आहे.  श्रीपाद  श्रीवल्लभांच्या  अवातर  समाप्तिनंतर  मी  मीनअंश,  मीन  लग्नावर  करंज  नगरीत  शुक्ल  यजुर्वेदीय  वाजसनेय  माध्यंदिन  शाखेत,  नृसिंहसरस्वती  या  नांवाने  जन्म  घेऊन,  गंधर्वनगरात  अनेक  लीला  करीन.  श्री  शैल्यातील  कर्दळीवनात  300  वर्ष  तपोसमाधी  नंतर,  स्वामी  समर्थ  ह्या  नांवाने  प्रज्ञापुरात  निवास  करीन.  जेव्हा  शनि  मीनेत  प्रवेश  करेल  तेव्हा  त्या  शरिराचा  त्याग  करिन.''

दत्तप्रभुंचे  हे  वरील  वक्तव्य  राजशर्माने  आपल्या  धर्मपत्नीस  सांगितले.  त्यावेळी  सत्यऋषिश्वर   बापनार्य  म्हणाले  ''बाबा  !  राजशर्मा  !  तुझ्या  पूर्वीच्या  युगातील  जन्मात  श्री  दत्तप्रभूंना,  सूर्याला,  अग्निला  श्राध्द  भोजन  दिलेला  तू  पुण्यात्मा  आहेस.  ह्या  जन्मात  कोणत्याहि  रूपांत  दत्तमहाराज  भोजन  द्या  असे  विचारतील,  तो  दिवस  पितृश्राध्दाचा  असला  तरी  कसलाही  विचार  न  करता  ब्राह्मण  जेवायच्या  अगोदरच  श्री  दत्ताने  भोजन  विचारले  तर  जरूर  वाढावे.''  बाई  सुमती  !  ही  गोष्ट  लक्षात  ठेव .''

बाबा  !  शंकरभट्टा  !  दत्तप्रभुंच्या  लीला  अलौकीक  आहेत.  आतापर्यंत  कधीही  न  ऐकलेल्या  आणि  अपूर्व  आहेत.  महालया  अमावस्येचा  दिवस  होता.  राज  शर्मा  पितृश्राध्दाच्या  तयारीत  होते.  दारा  समोर  ''भवति  भिक्षांदेही''  असा  आवाज  ऐकला  आणि  त्या  अवधूताला  सुमती  महाराणीने  भिक्षा  घातली.  काही  मागणे  माग,  असे  म्हणणाऱ्या  अवधूताला  सुमती  म्हणाली.  ''बाबा  आपण  अवधूत  आहात.  आपले  वाक्य  म्हणजे  सिध्दवाक्यच  आहे.  श्रीपाद  श्रीवल्लभांचा  अवतार  लवकरच  या  भूमीवर  होईल  असे  विद्वान  लोक  सांगतात.  दत्तप्रभू  आता  कोणत्या  रूपात  संचार  करीत  आहेत?
या  शंभर  वर्षापूर्वीपासून  ह्या  भूमिवर  श्री  दत्तप्रभू  श्रीपाद  श्रीवल्लभ  या  रूपात  फिरत  आहेत  असे  ज्ञातहोत  आहे.  आपण  मला  ''काहीतरी  माग''  असे  म्हटलेत.  मला  श्रीपाद  श्रीवल्लभांचे  रूप  पहाण्याची  फार  तीव्र  इच्छा  आहे.''
श्रीपाद  श्रीवल्लभांचा  अविर्भाव  (प्राकटय) 
हे  शब्द  ऐकून  त्या  अवधूताने  भुवने  दणाणून  जाण्यासारखे,  भूकंप  आल्यासारखे  विकट  हास्य  केले.  सुमती  महाराणीला  तिच्या  सभोवतीचे  समस्त  विश्व  एका  क्षणातच  अदृष्य  झाल्यासारखे  वाटले.  समोर  16  वर्षे  वय  असलेला  सुंदर  बालक  यतीच्या  रूपात  प्रकट  झाला.  आणि  म्हणाला  ''आई  !  मीच  श्रीपाद  श्रीवल्लभ  आहे.  मीच  दत्त  आहे.  अवधूतांच्या  रूपात  असतांना  श्रीवल्लभांचे  रूप  पहाण्याची  इच्छा  व्यक्त   केलीस.  ती  इच्छा  पूर्ण  करण्यास  तुला  श्रीवल्लभांच्या  रूपात  दर्शन  दिले.  श्रीवल्लभांच्या  रूपात  असलेल्या  मला  कोणतेही  मागणे  मागु  शकतेस.  तू  मला  जेऊ  घालून  तृप्त  केलेस.  जे  मागशील  ते  वरदान  द्यावे  अशी  इच्छा  आहे.  या  जगातील  लोकांनी  संकल्प  रूपाने  पापकर्म  केल्यास  पापांचे  फळच  प्राप्त  होते.  संकल्पाने  पुण्यकर्म  केल्यास  पुण्यकर्माचे  फळ  प्राप्त  होते.  निष्काम  कर्माचे  आचरण  केल्यास  त्याला  अकर्म  म्हणतात.  ते  सुकर्म  ही  नसते  अथवा  दुष्कर्म  ही  नसते.  अकर्मास  पुण्य  किंवा  पाप  असे  कोणतेच  फळ  नाही  म्हणून  दुसरेच  फळ  द्यावे  लागते.  ते  भगवंताधिन  असते.  अर्जुनाने  अकर्म  केल्यामुळेच  श्रीकृष्णाने  त्याला  कौरवांना  मारावयास  सांगितले.  तसे  मारल्यास  पाप  लागणार  नाही  असे  श्रीकृष्णाने  अर्जुनास  सांगितले  होते.  कौरवांचा  संहार  हा  भगवंत  निर्णयच  होता.  तुम्ही  दंपतींनी  पण  विशेष  असे  अकर्म  केले  आहे.  म्हणुन  लोकहितार्थाने  काही  तरी  प्रतिफळ  दिले  पाहिजे.  निसंदेहाने  तुझी  इच्छा  मला  सांग,  न  चुकता  ती  पुरवीन.'' 
श्री  दत्तांच्या  दर्शनानंतर  सुमती  महाराणीला  स्फुरलेला  संकल्प 
ती  दिव्यमंगल  मूर्ति  पाहून  सुमती  महाराणीने  पादाभिवंदन  केले.  श्रीवल्लभांनी  सुमती  महाराणीला  उचलून  उभे  केले  व  म्हणाले  ''आई  !  मुलाच्या  पाया  पडणे  हे  अयोग्य  आहे.  याने  मुलाचे  आयुष्य  क्षीण  होते.  तेंव्हा  सुमती  म्हणाली,  ''श्रीवल्लभ  प्रभू  !  आई  म्हणून  बोलाविलेत.  आपले  हे  सिध्दवाक्य  आहे  तेच  बोल  खरे  करावे.  तू  माझा  मुलगा  म्हणून  जन्मास  यावे.''  यावर  श्रीदत्त  प्रभूंनी  ''तथास्तु''  असा  आशिर्वाद  दिला  व  म्हणाले  ''मी  श्रीपाद  श्रीवल्लभ  या  रूपाने  तुझ्या  गर्भात  येईन.  आईने  लेकरांच्या  पायावर  पडणे  हे  लेकराचे  आयुष्य  क्षीण  होणेच  होय.  म्हणून  मी  धर्मकर्माच्या  सुत्रांच्या  उलट  जात  नाही.  मी  पुत्र  रूपाने  16  वर्षापर्यंत  जीवन  व्यतित  करेन.''  त्यावर  सुमती,  म्हणाली  केवढा  हा  अविचार  16  वर्षापर्यंतच  आयुष्य  !''  असे  म्हणून  विलाप  करू  लागली.  त्यावर  श्रीचरणांनी  सांगितले,  ''आई  !  16  वर्षापर्यंत  तुम्ही,  सांगाल  तसे  ऐकून  राहीन.  ''प्राप्ते  तु  षोडशे  वर्षे  पुत्रं  मित्रवदाचरेत्''  असे  शास्त्र  वचन  आहे.  16  वर्षे  वय  असलेल्या  मुलाबरोबर  मित्रा  सारखेच  वागले  पाहिजे.  आपल्या  इच्छांचे  दडपण  त्याच्यावर  आणू  नये.  मला  लग्न  करण्यासाठी बंधन  घालू  नये.  मला  यति  होऊन  स्वेच्छेने  विहार  करण्याची  परवानगी  द्यावी.  माझ्या  या  संकल्पाच्या  विरुध्द  तुम्ही  बंधन  घातले  तर  मी  घरात  राहणार  नाही.''  असे  सांगून  त्वरित  दत्त  प्रभु  अदृश  झाले.
सुमती  महाराणी  अवाक   झाली.  तिला  कांहीच  कळेनासे  झाले.  घडलेला  सारा  वृतांत  तिने  आपल्या  पतीस  विवरण  करून  सांगितला.  तेवढयातच  अप्पलराजू  म्हणाले,  ''सुमती  विचार  करू  नकोस,  श्रीदत्त  महाराज  या  प्रकारे  आपल्या  घरी  भिक्षेस  येतील  असा  विषय  तुझ्या  वडीलांनी  सूचना  म्हणून  अगोदर  सांगून  =ठेवला  होता.  श्रीदत्त  हे  करुणेचा  महासागर  आहेत.  श्रीवल्लभांचा  जन्म  होऊ  दे,  नंतर  आपण  विचार  करू''  अप्पल  राजुच्या  घरी  अवधूत  आले  ही  वार्ता  सगळया  गावात  पसरली.  पितृदेवांची  अत्यंत  प्रमुख  असलेली  महालय  अमावस्येच्या  दिवशी  ब्राह्मण  जेवायच्या  आधी  अवधूतास  भिक्षा  दिली  ह्या  विषयाची  चर्चा  झाली.  श्री  बापन्नावधानी  म्हणाले.  ''श्रीपाद  श्रीवल्लभांचा  जन्म  होणार  हे  सगळेच  म्हणतात  !  अवधूतांना  साष्टांग  नमस्कार  करणे  विहीतच  आहे  !  त्यामध्ये  सुमतीचा  काहीच  दोष  नाही.  पुत्ररूपाने  जन्मल्यावर  त्याला  साष्टांग  नमस्कार  केल्यास  बालकाचे  आयुष्य  क्षीण  होते.  परंतु  अवधूत  वेषात  असतांना  साष्टांग  नमस्कार  करणे  चूक  नाही.''  या  प्रसंगाने  पीठिकापुरातील  सर्व  ब्राह्मणांची  इर्ष्या  वाढली  विशेषत्वाने  नरसावधानी  या  नावाच्या  पंडितांची.  अमावस्येच्या  दिवशी  सगळेच  पितृकार्यामध्ये  निमग्न  झालेले  होते.  भोक्त्याचा  दुष्काळच  होता,  ही  फार  मोठी   समस्याच  पडली.  श्री  बापन्नार्यांनी  अप्पलराजुच्या  घरी  मात्र  निर्विघ्नपणे  कार्य  पार  पडेल  असे  सांगितले.  श्री  राजशर्मा  कालाग्नी  शमनांचे  (दत्ताचे)  ध्यान  करीत  होते.  तितक्यात  भोक्त   म्हणुन  तीन  अतिथी  आले.  आणि  पितृकार्य  निर्विघ्नपणे  पार  पडले.

बाबा  !  शंकर  भट्टा  !  त्या  दिवशी  वैश्यांना  वेदोक्त्त  उपनयन  करण्याचा  अधिकार  आहे  का  ?  नाही  ?  असा  विषय  चर्चेत  मुख्यांश  होता.  ब्राह्मणांची  परिषद  जमली.  बंगाल  देशातील,  नवद्वीपाहून  आशुतोष  या  नावाचे  पंडित  पादगया  क्षेत्रास  आले  होते.  त्यांच्याकडे  अत्यंत  प्राचीन  नाडी  ग्रंथ  होते.  त्यांना  देखील  पंडित  परिषदेचे  आमंत्रण  होते.  बापन्नाचार्यांनी  सांगितले,  नियमनिष्ठेमध्ये  ब्राह्मण,  क्षत्रीय,  वैश्य  समानच  असतात.
श्रीपादांच्या  जन्मसमयी  दृग्गोचर  झालेले  अद्भूत  दृष्य 
इतक्यात  मी  म्हणालो  ''महाराज,  श्रीपाद  प्रभूंच्या  लीला  विस्तारपूर्वक  सांगून  मला  धन्य  करावे.''  अरे  शंकर  भट्टा  !  नरसावधानी  बापन्नार्यावर  क्रोधित  झाले  व  येनकेन  प्रकारेण  त्यांचा  अपमान  करण्याचे  त्यांनी  ठरविले .  त्यांची  (नरसावधानींची)  बगलामुखी  साधना  विफल  होण्याचे  एकमेव  कारण  बापन्नार्यच  आहेत  असे  त्यांच्या  मनाने  ठामपणे  घेतले  होते.  तांत्रिक  प्रयोगाने  बापन्नार्याने  त्यांची  मंत्रसिध्दि  निष्प्रभ  केली  असा  कुप्रचार  करण्यास  त्यांनी  सुरवात  केली.  नाडी  ग्रंथात  श्रीपाद  प्रभूंच्या  अवताराविषयी  जे  विवरण  होते  ते  त्यांना  विचलित  करीत  होते.  नाडीग्रंथ  हा  मुलत:  अविश्वसनीय  आहे.  बापन्नार्यानी  मत्स्याहारी  ब्राह्मणास  भोजन  दिले,  हा  अनाचार  घडला  असा  नरसावधानी  यांनी  वाद  मांडला.  मनुष्य  पूर्णब्रह्माचा  अवतार  कदापि  होऊ  शकत  नाही.  तर  तान्हे  बाळ  श्रीपाद  श्रीवल्लभ  सर्वांतर्यामी,  सर्वज्ञ,  सर्वशक्तिमान  असे  श्रीदत्त  प्रभूंचे  कसे  बरे  अवतार  होऊ  शकतील  ?  श्रीपाद  प्रभूंनी  अगदी  लहान  असताना  केलेला  प्रणवोच्चार,  पाळण्यात  असताना  केलेला
शास्त्र  प्रसंग,  आणि  वयास  न  शोभणारे  प्रज्ञेचे  प्रदर्शन  नरसावधानींना  पटले  नाही.  एखादा  विद्वानब्राह्मण  श्रीपादाच्या  शरीतात  प्रवेश  करून  असे  बोलतो  आहे  असा  त्यांनी  प्रचार  केला.  श्री  कुक्कुटेश्वराच्या  मंदिरात  असलेले  स्वयंभू  तेच  खरे  दत्तात्रय  आहेत.  तेच  वर  प्रदान  करणारे आहेत. या बालकास दत्तस्वरूप मानने चुकीचे आहे .असा नारसावधनी यांनी सर्वांचा समज करून देण्याचा प्रयत्न केला.
श्रीपादांच्या  जन्मानंतर  सतत  नऊ  दिवसापर्यंत  ज्या  जागेवर  त्यांना  निजवत  असत  त्या  जागी  एक  तीन  फण्यांचा  नाग  आपला  फणा  उभारून  बाळावर  छाया  करीत  असे.  श्रीपाद  मातेच्या  गर्भातून  साधारण  बालका  प्रमाणे  जन्मास  न  येता  ज्योति  स्वरूपाने  अवतरले  होते.  जन्म  होता  क्षणीच  महाराणी  सुमती  मर्च्छित  झाल्या.  प्रसुतीगृहातून  मंगल  वाद्यांचा  ध्वनी  येऊ  लागला.  थोडया  वेळात  आकाशवाणी  झाली  व  सर्वाना  बाहेर  जाण्याचा  आदेश  झाला.  श्रीपादांच्या  सानिध्यात  चार  वेद, अठरा  पुराणे  आणि  महापुरुष  ज्योति  रूपाने  प्रगट  झाले  व  पवित्र  वेदमंत्रांचा  घोष  बाहेर  सर्वांना  ऐकू  येऊ  लागला.  थोडया  वेळाने  सर्वत्र  शांतता  पसरली.  या  अद्भूत  घटना  बापन्नार्याना  सुध्दा  अगम्य  व  आश्चर्यकारक  वाटल्या.
श्रीपादांच्या  बाललीला 
श्रीपाद  आता  एक  वर्षाचे  झाले  होते.  ते  आठ  दहा  महिन्यांचे  असतानाच  त्यांचे  आजोबा  बापन्नार्याबरोबर  पंडितपरिषदेस  जात  असत.  आजोबा  आपल्या  नातवाला  बरोबर  घेऊन  जात.  नरसावधानी  आपल्या  घरी  राजगिऱ्याचे  पीक  काढीत.  राजगिऱ्याची  भाजी  अत्यंत  रुचकर  असते.  गावातील  लोक  नरसावधानीना  ती  भाजी  देण्याची  विनंती  करीत.  परंतु  ते  ती  भाजी  कोणालाच  देत  नसत.  कोणाकडून  काही  विशेष  काम  करून  घ्यायचे  असल्यास  त्याला  ते  ती  भाजी  देत  व  इच्छित  काम  करून  घेत.  श्रीपादांनी  एकदा  आपल्या  आईस  राजगिऱ्याची  भाजी  करण्यास  सांगितले.  ती  भाजी  सुध्दा  नरसावधानीच्या  घरचीच  त्यांना  हवी  होती.  परंतु  हे  काम  कठीण   होते.  श्रीपाद  लहान  असतानाच  स्वेच्छेने  चालत  नरसावधानींच्या  घरी  जात  असत.  त्यांच्या  घरी  शास्त्राविषयी  चर्चा  करीत,  तसेच  चित्र-विचित्र  लीला  करीत.  पीठिकापुरत  एका  महापंडिताचा  मृत्यु  झाला  होता.  त्या  पंडिताचा  प्रेतात्मा  श्रीपादाकडून  विचित्र-कार्य  करवून  घेत  आहे.  या  बालकास  योग्य  ते  उपचार  न  करता  बापन्नाचर्य व  राजशर्मा  हे  दोघे  या  बालकास  दत्तावतारी  समजत  आहेत,  असे  नरसावधानी  सर्वाना  सांगत.  पीठिकापूर   हे  पादगया  क्षेत्र  असून पितृदेवांचे  प्रधान  स्थान  आहे.  विगत  आत्म्यांशी  संपर्क  साधून  संभाषण  करण्याचे  सामर्थ्य  असलेले  तत्त्ववेत्ते  येथे  राहात  असत.  श्रीपादांच्या  शरीरात  कोणत्यातरी  महापंडिताचा  आत्माच  वास  करीत  आहे  आणि  त्यांच्याकडून  अगम्य  अशा  लीला  करवून  घेत  आहे,  अशी  धारणा पीठिकापुरम मध्ये  दृढ   होत  होती.
तिरूमलदास पुढे म्हणाले ‘ मी  मलयाद्रीपुरमहून  पीठिकापुरम  येथे  आलो  तेव्हा  श्रीबापन्नार्य  आणि  राजशर्मा  यांच्या  घरचा  रजक  होतो.  नरसावधानीच्या  घरचा  जो  रजक  होता  तो  वृध्दावस्थेने  मरण  पावला  होता.  त्या  रजकाचा  मुलगा  वायसपूर  अग्रहार  (सध्याचेकाकिनाडा)  येथे  निघून  गेला  होता.  यामुळे  त्यांच्या  घरचे  रजकाचे  काम  मला  मिळाले  होते.  मी  लहानपणापासून  बापन्नार्युलुच्या  सहवासात  असल्याने  माझ्यातील  सतप्रवृत्ती जागृत  झाली  होती  व  अध्यात्माची  ज्योत  प्रज्वलित  झाली  होती.  ज्या  दिवशी  मी  नरसावधानींना  पहात  असे  त्या  दिवशी  मला  पोटाचा  विकार  होऊन  अन्न  ग्रहण  न  करण्याइतकी  माझी  दीन  अवस्था  होई.  नरसावधानीचे  कपडे  मी  स्वत:  न  धुता  माझा  मुलगा  रविदास  ते  धूत  असे.  सात्विक  प्रवृतीच्या  लोकांचेच  कपडे  मी  स्वत:  धूत  असे.
नरसावधानींचे  कपडे  मी  स्वत:  न  धूता  ते  माझा  मोठ  मुलगा  रविदास  धूतो,  ही  वार्ता  त्यांच्या  कानी  गेली.  त्यांचे  कपडे  मी  स्वत:  धूवावे  अशी  त्यांनी  आज्ञा  केली.  ती  आज्ञा  मानून  मी  नरसावधानीचे  कपडे  स्वत:  धुऊ  लागलो.  मी  कपडे  धूत  असताना  श्रीपादाचे  नाम  स्मरण  करीत  असे.  मी  धुतलेले  कपडे  घेऊन  रविदास  नरसावधानींकडे  गेला.  मी  धुतलेले  कपडे  जेंव्हा  सगळयांनी  घातले,  तेंव्हा  कोणालाच  काही  झाले  नाही.  परंतु  नरसावधानींनी  ज्या  वेळी  ते  कपडे  घातले,  तेंव्हा  त्यांना  त्यांच्या  अंगावर  विंचू,  गोम  सरपटत  असल्यासारखे  वाटले.  त्या  कपडयामध्ये  त्यांचे  शरीर  अग्नीवर  ठेवल्याप्रमाणे  पोळू  लागले.  नरसावधानींनी  मला  बोलवले  व  ते  रागाने  म्हणाले,  कोणत्यातरी  क्षुद्र  विद्येचा,  मंत्राचा  प्रयोग  मी  कपडयावर  केला  आहे.  त्या  अपराधाबद्दल  त्यांनी  माझी  न्यायाधिशाकडे  तक्रार  केली.  परंतु  चतुर  न्यायाधिशांनी  मला  निर्दोष  जाहीर  करून  सोडून  दिले.  मी  आनंदात  घरी  आलो.  थोडयाच  वेळात  श्रीपाद  प्रभू  एका  सोळा  वर्षाच्या  युवकाच्या  रूपात  आमच्या  घरी  आले.  श्रीपाद  प्रभू  वाटेल  त्या  रूपात  येऊन  भक्तांना  दर्शन  देत  असत.  मी  आश्चर्याने  म्हणालो,  ''महाराज  आपण  उत्तम  अशा  ब्राह्मण  कुलामध्ये  जन्मलेले  आहात,  तेंव्हा  आमच्या  सारख्या  रजकांच्या  वस्तीत  येणे  कांही  योग्य  नाही.''  तेव्हा  प्रभू  म्हणाले  ''नरसावधानीसारखे  पापाचे  गाठोडे   डोक्यावर  वाहणारे  ब्राह्मण  खरे  तर  रजकांपेक्षा  कमी  दर्जाचे  असतात.  परंतु  तुझ्यासारखे  ब्राह्मणांची  ओढ  असलेले  रजक  त्यांच्यापेक्षा  श्रेष्ठच  असतात.''  श्रीपादांचे  ते  शब्द  ऐकून  मी  त्यांच्या  चरणांवर  नतमस्तक  झालो  आणि  ढसा  ढसा  रडलो.  श्रीप्रभूंनी  माझ्याकडे  अमृतदृष्टीने  पाहिले  व  आपल्या  दिव्य  हाताचा  स्पर्श  करून  मला  उठवले.  नंतर  त्यांनी  आपला  उजवा  हात  माझ्या  शिरावर  ठेवला  आणि  त्याच  क्षणी  मला  पुर्वीचे  जन्म  आठवले .  माझ्यातील  योग  शक्तींना  चालना  मिळाली.  कुंडलिनी  शक्ती  सुध्दा  जागृत  झाल्याचा  अनुभव  येऊ  लागला.  श्रीपाद  प्रभू  हळू  हळू  पाऊले  टाकीत  अंतर्धान  पावले.

श्रीपाद  प्रभूंनी  आपल्या  आईजवळ  राजगिऱ्याची  भाजी  करून  देण्याचा  हट्ट  केला.  त्यांना  नरसावधानींच्या  घरातील  भाजी  हवी  होती.  परंतु  ती  गोष्ट  अशक्य  वाटत  होती.  या  वेळी  बापन्नार्य म्हणाले,  ''श्रीपादा  !  उद्या  सकाळी  मी  तुला  नरसावधानींच्या  घरी  घेऊन  जातो.  तू  स्वत:  त्यांना  राजगिऱ्याची  भाजी  देण्याची  विनंती  कर.  परंतु  जर  त्यांनी  ती  भाजी  देण्यास  नकार  दिला  तर  त्याभाजीसाठी  पुन्हा  कधी  हट्ट  करू  नकोस.''  दुसऱ्या  दिवशी  बापन्नार्य  बालक  श्रीपादाला  घेऊन  नरसावधानीकडे  गेले.  त्यांच्या  घरी  जाताच  बापन्नार्य  श्रीपादांना  म्हणाले,  ''श्रीपादा  !  मोठ्यांना   नमस्कार  करून  त्यांचे  आशिर्वाद  घ्यावेत.  नरसावधानी  बाहेर  ओसरीवर  बसले  होते.  त्यांची  लांब  शिखा  पाठीवर   रुळत  होती.  ती  नरसावधानींना  अत्यंत  प्रिय  होती.  श्रीपादांनी  नरसावधानींकडे  बघितले  व  दोन  हात  जोडून  त्यांना  नमस्कार  केला.  श्रीपादांची  तीक्ष्ण  नजर  नरसावधानींच्या  पाठीवर  विसावलेल्या  शिखेवर  पडली  आणि  काय  आश्चर्य  ती  आपोआप  गळून  खाली  पडली.  ती  पाहून  नरसावधानी  अगदी  गोंधळून  गेले.  या  वेळी  श्रीपाद  म्हणाले,  ''आजोबा  !  नरसावधानी  आजोबांची  अत्यंत  प्रिय  असलेली  शिखा  गळून  पडली.  आता  त्यांच्याकडे  राजगिऱ्यांची  भाजी  मागणे  योग्य  होईल  काय  ?  चला  आपण  घरी  जाऊ.''  श्रीपादांनी  राजगिऱ्याची  भाजी  पुन्हा  कधीही  विचारली  नाही.

श्रीपादांच्या  नमस्कारामुळे  झालेले  नुकसान  नरसावधानींच्या  लक्षात  आले.  ते  ध्यानात  बसले  असता  त्यांच्या  शरीरातून  त्यांच्या  सारखेच  दिसणारे  एक  तेजोवलय  बाहेर  पडले.  नरसावधानींनी  त्या  तेजोवलयास  विचारले  ''तू  कोण  ?  कोठे  चाललास  ?''  त्या  तेज:पुंज  नरसावधानी  सारखे  दिसणाऱ्या  आकृतीने  उत्तर  दिले  ''मी  तुझ्यात  राहणारे  पुण्यशरीर  आहे.  तू  आतापर्यंत  कितीतरी  वेद  पठन  केलेले  आहेस.  स्वयंभू  दत्तात्रेयांची  आराधना  केलीस,  परंतु  साक्षात  श्री  दत्तात्रेयांचे  अवतार  श्रीपाद  श्रीवल्लभांचा  अपमान  केलास.  तुला  तुझ्या  शिखेवर,  राजगिऱ्याच्या  भाजीवर  असलेले  प्रेम,  आसक्तीच्या  एक  लक्षांश  प्रेम  जरी  श्रीपादांच्या  विषयी  असते  तर  तुझ्या  जन्माचे  सार्थक  झाले  असते.  परंतु  मोहपाशांनी  स्वत:स  बांधून  घेऊन  मोक्षाची  एक  दिव्य  संधि  घालवलीस  .  तू  लवकरच  दरिद्री  होशील.  त्या  दारिद्रयाचे  हरण  करण्यासाठी  श्रीपाद  प्रभूंनी  तुला  ''शाकदान''  मागितले  होते.  त्यांना  जर  तू  ते  दान  दिले  असतेस,  तर  तुला  आता  येणारे  दारिद्रय  न  येता  उत्तम  ऐश्वर्य  प्राप्त  झाले  असते.  तू  स्वत:  आपल्या  हातांनी  ही  संधि  दवडलीस.  श्रीपाद  प्रभू  करूणेचे  सागर  आहेत.  हा  अवतार  संपल्यावर  ते  दुसरा  नृसिंहसरस्वती  नांवाने  अवतार  ग्रहण  करतील.  त्यावेळी  तू  एक  दरिद्री  ब्राह्मणाच्या  रूपात  जन्म  घेशील.  त्या  जन्मात  सुध्दा  तू  घरी  राजगिऱ्याची  भाजी  पिकवशील.  त्यावेळी  योग्य  समय  पाहून  मी  पुन्हा  तुझ्या  शरीरात  प्रवेश  करीन.  त्यावेळी  श्रीपाद  प्रभू  तुझ्या  घरी  भिक्षेसाठी येतील.  तू  प्रेमाने  वाढलेली  भिक्षा  घेऊन  तुला  ते  ऐश्वर्य  प्रदान  करतील.  सध्या  मात्र  मी  तुझे  शरीर  सोडून  जात  आहे.  श्रीपाद  प्रभूंनी  केलेला  नमस्कार  तुला  नव्हता  तर  तुझ्यातील  पुण्य  स्वरूपात  वास्तव्य  करणाऱ्या  मला  होता. त्यांनी  मला,  तुला  सोडून  देऊन  त्यांच्या  स्वरूपात  लीन  होण्याची  आज्ञा  केली  होती.  त्यानुसार  मी  श्रीपादाच्या  स्वरूपात  लीन  होण्यास  जात  आहे.  आता  तुझ्या  शरीरात  केवळ  पाप  पुरुषच  उरला  आहे.''  असे  बोलून  तो  पुण्यात्मा  श्रीपादांमध्ये  विलीन  झाला.

कालांतराने  नरसावधानींची  प्रकृती  क्षीण  होत  गेली.  लोक  त्यांच्या  शब्दांचा  निरादर  करू  लागले.  त्यांच्या  चेहऱ्यावर  विलसणारे  विद्वत्तेचे  तेज  लोप  पावले.  याच  वेळी  पीठिकापूरात  विषूचि (कॉलराची)  साथ  पसरली.  यात  अनेक  ग्रामवासी  या  रोगास  बळी  पडले.  दूषित  पाण्यामुळे  हा  रोग  बळावत  असल्याचा  निष्कर्ष  गावातील  वैद्यांनी  काढला.  भयभीत  झालेल्या  ग्रामवासियांनी  यामहामारीच्या  रोगावर  शास्त्रीय  रीतिने  निर्मूलन  पध्दती  काढावी  अशी  प्रार्थना  श्री  बापन्नार्यांना  केली.  श्री  बापन्नार्यानी  आपल्या  अंतर  दृष्टीने  जाणले  की  महामारी  जलदोषाने  झालेली  नसून  वायुमंडल  कलुषित  झाल्याने  झाली  आहे.  परंतु  बापन्नार्याचे  हे  मत  गावातील  वैद्यांना  पटले  नाही.  ग्रामस्थानी  ग्रामदेवतेस  पशुबली  देऊन  तांत्रिकाकडून  विविध  प्रकारच्या  पूजा,  महामारीच्या  निर्मूलनासाठी   केल्या.  पशूचा  बळी  दिल्याने  त्यांच्यातील  प्राणशक्ती बळजबरीने  बाहेर  काढली  जाते  व  तिला  मंत्रोच्चाराने  वश  करून  घेतात.  प्राणशक्तीस  वृध्दिंगत  करण्यासाठी   योगाच्या  प्रक्रिया  किंवा  सात्विक  आराधनेचा  अवलंब  करणे  अधिक  योग्य  आहे  असे  श्री  बापन्नार्यांचे  मत  होते.  त्यांनी  ग्रामवासियांना  असे  सुचविले  परंतु  अंधश्रध्देने  त्यांनी  पशुबळी  देण्याचे  थांबवले  नाही.  गावातील  कांही  मंडळींनी  पशुबळीचा  विषय  श्रीपाद  प्रभूंपुढे  काढला.  त्यावर  श्रीपाद  म्हणाले  ''ग्रामदेवतेस  विनंती  केली  आहे  की  तिने  पशुबळीचा  स्वीकार  करू  नये.''  श्रीपादांच्या  आज्ञेनुसार  ग्रामदेवता  समुद्रस्नान  करण्यास  गेली  आहे.  आता  दूध  उतू  घालून  देवतेस  नैवेद्य  अर्पण  केल्यास  या  रोगराई  पासून  तुमची  सुटका  होईल.  कालिकेचे  रूप  धारण  केलेली  ग्राम  देवता  शांत  होईल.  ही  वार्ता  गावातील  सर्व  लोकांना  कळविण्यासाठी  एका  चर्मकारास  बोलावून  चर्मवाद्यावर  दवंडी  पिटविण्यास  सांगितले.  दवंडी  कोणी  पिटायची  असे  विचारल्यावर  श्रीपाद  म्हणाले  विषुचि  रोगाने  ग्रस्त  वेंकय्या  याने  दवंडी  पिटावी,  असा  माझा  निरोप  त्यास  सांगा.  ते  सर्व  ग्रामवासी  वेंकय्याजवळ  गेले,  तो  मरणासन्न   होता.  त्याला  हा  निरोप  देताच  तो  मुरच्छित  पडला.  एका  घटकेनंतर  जेव्हा  तो  शुध्दिवर  आला  तेव्हा  तो  पूर्णपणे  बरा  झाला  होता.  ही  बातमी  हा  हा  म्हणता  संपूर्ण  पीठापुरममध्ये  चर्चेचा  विषय  झाली.  व्यंकय्याने  गावात  फिरून  चोहिकडे  दवंडी  पिटली.  बापन्नार्यानी  आपल्या  सेवकास,  पाण्याने  भरलेले  एक  मोठे   भांडे  त्यांच्या  समोर  आणून  ठेवण्यास   सांगितले.  वायुमंडलातील  विषारी  किटाणूंचा  नाश  करण्यासाठी  योग्य  त्या  मंत्राचे  संधान  केले.  आणि  तत्काळ  हवेतील  विषारी  किटाणू  पाण्यात  टप  टप  येऊन  पडले.  अशा  प्रकारे  वायुमंडल  शुध्द  झाले  आणि  महामारी  रोगाचे  निर्मुलन  झाले.

श्रीपादांच्या  जन्मतिथीस  (वाढदिवसाच्या  दिवशी)  राजशर्मा  पत्निसह  श्रीपादांना  घेऊन,  बाळाचे  आजोबा  श्री  बापन्नार्य  यांच्याकडे  आले.  ज्या  ज्या  वेळी  बापन्नार्यानी  श्रीपादांच्या  चरणावरील  शुभचिन्हे  पहाण्याचा  प्रयत्न  केला,  त्या  त्या  वेळी  त्यांना  कोटी  कोटी  सूर्याच्या  तेजस्वितेचा  अनुभव  येई  व  ती  शुभचिन्हे  त्या  तीव्र  प्रकाशात  दिसत  नसत.  याचे  त्यांना  राहून  राहून  आश्चर्य  वाटे.  परंतु  त्या  दिवशी  उष:काली  साळीच्या  कोंडयावर  दिव्य  असे  पदचिन्ह  दिसले.  त्यांनी  आपली  कन्या  सुमतीस  विचारले,  ''बाळ  या  कोंडयावरुन  कोण  गेले.  तुमचा  लाडका  नातूच  येथून  गेला.  आणखी  कोण  बाबा''  सुमतीने  उत्तर  दिले.  ते  पदचिन्ह  षोडशवर्षीय  कुमाराच्या  पदचिन्हासारखे  होते.  आजोबांनी  श्रीपादांना  आपल्या  मांडीवर  घेतले  व  त्याच्या  चरण  कमलांचे  ते  निरिक्षण  करू  लागले.  या  वेळी  त्यांना  दिव्य  प्रकाश  न  दिसता  मीच  साक्षात  दत्तात्रेयांचा  अवतार  आहे  असे  सूचित  करणाऱ्या  सुस्पष्ट अशा  चिन्हांचे  दर्शन  झाले.  त्या  दिव्य  चरणांचे  बापन्नार्यांनी  कौतुकाने  चुंबन  घेतले.  हा  बालक  श्री  दत्तात्रेयाचा  अवतार  असल्याचा  त्यांचा  निर्धार  दृढ  झाला.  त्याच  वेळी  त्यांच्या  मुखातून  श्री  दत्ताच्यास्तुतीपर  पद  आपोआप  निघाले.  त्या  दिव्य  चरणांच्या  दर्शनाने  बापन्नार्याच्या  अंगी  अष्टभाव  सिध्द  झाले.  त्यांच्या  डोळयातून  आनंदाश्रू  वाहू  लागले.  ते  श्रीपादांच्या  गालावर  ओघळले  आणि  मोत्याच्या  बिंदु  सारखे  चमकत  होते.  आजोबानी  आपल्या  उपरण्याने  हळुवारपणे  श्रीपादाच्या  गालावरील  ते  थेंब  पुसले.  या  वेळी  श्रीपाद  म्हणाले.  आजोबा  तुम्ही  सौरमंडलातून  शक्तिपात   करून  ती  शक्ति  श्रीशैल्यस्थित  श्री  मल्लिकार्जुन  शिवलिंगात  आकर्षित  केली  होती.  त्याच  वेळी  सूर्यमंडलातील  ती  शक्ति  गोकर्ण  महाबळेश्वरी  व  पादगया  क्षेत्री  स्थित  असलेल्या  स्वयंभू  श्रीदत्तात्रेयांच्या  ठायी   सुध्दा  आकर्षित  झाली.  गोकर्ण  महाबळेश्वर  क्षेत्रास  अधिक  शक्तिसंपन्न   करण्याचा  संकल्प  आहे.  प्राणी  मात्रातून  जे  अनिष्ट  स्पंदन  बाहेर  पडतात  त्या  स्पंदनाना  माझ्यात  लय  पावून,  जे  माझे  साधक,  आश्रित  आहेत  त्यांच्या  प्रति  शुभ  स्पंदनांचे  प्रसारण  व्हावे  असा  माझा  संकल्प  आहे.  गोकर्ण  महाबळेश्वर  हे  परमेश्वराचे  ''आत्मलिंग''  आहे.  त्याच्या  केवळ  दर्शनाने  मुक्ति   साध्य  होते.  तसेच  श्रीशैल्याच्या  दर्शनाने  सुध्दा  मुक्तिचे   फळ  प्राप्त  होते.  येथील  मल्लिकार्जुनास  शक्तिसंपन्न  करण्याचा  संकल्प  आहे.  तुम्ही  सत्यऋषी  आहात.  मी  यतीच्या  रूपात  होतो  तेव्हा  आईने  मला  नमस्कार  केला,  त्यामुळे  मी  अल्पायुषी  होणार  असे  आपले  मत  होते.  परंतु  आईने  मला  श्रीपाद  रूपात  नमस्कार  केला  म्हणून  मी  अल्पायुषी  होणार  असे  म्हणालो  तेंव्हा  आपल्या  दोघांचेही  म्हणणे  खोटे  होऊ  नये  म्हणून  मी  केवळ  सोळा  वर्षे  पर्यंत  तुमच्या  घरी  राहण्याचे  ठरविले   आहे.  संसार  बंधनातून  मुक्तीची  इच्छा  करणाऱ्या  मुमुक्षूंना  अनुग्रह  देण्याचे  कार्य  पुढे  आहे.  मी  चिरंजीव  असावे  असा  तुमचा  संकल्प  आहे,  तो  मी  पूर्तीस  नेईन.  श्रीपाद  श्रीवल्लभ  हे  स्वरूप  गुप्त  करेन.  नृसिंह   सरस्वती  हा  अवतार  घेतला  तरी  श्रीपाद  श्रीवल्लभ  रूप  हेच  नित्य  सत्य  रूप  म्हणून  राहील.  नृसिंह  सरस्वतीचे  अवतारकार्य  पूर्ण  करून  श्रीशैल्यास  असलेल्या  कदलीवनात  तीनशे  वर्षे  पर्यंत  तपश्चर्या  करून  प्रज्ञापूर  (अक्कलकोट)  येथे  स्वामी  समर्थ  रूपात  प्रकट  होईन.  तेथील  वटवृक्षामध्ये  माझी  प्राण  शक्ति   प्रवेश  करवून  मल्लिकार्जुन  शिवलिंगात  विलिन  होईन.

बापन्नार्याना  हे  सगळे  आश्चर्यकारक  व  अद्भूत  असे  वाटले.  आजोबांच्या  घरी  पहिल्या  वर्षीचा  वाढदिवस  अति  आनंदात  व  थाटाने  साजरा  झाला.  पीठिकापुरमला   त्या  दिवशी  आणखी  एक  आश्चर्य  घडले.  नरसावधानी,  देवळाचे  पुजारी  आणि  अजून  कांही  मंडळी  कुक्कटेश्वराच्या  मंदिरात  दर्शनाला  गेले  असताना,  त्यांना  तेथे  स्वयंभू  दत्तात्रेयांची  मूर्ती  दिसली  नाही.  मंदिरातील  मूर्ती  दिसेनाशी  झाल्याची  वार्ता  गावात  दावानलासारखी  पसरली.  नरसावधानींच्या  विरूध्द  असलेला  एक  तांत्रिक  मूर्ती  अदृश्य  होण्याचे  कारण  नरसावधानींच  आहेत  असे  मोठ्या   तावातावाने  म्हणू  लागला.  नरसावधानी  क्षुद्र  विद्येचे  उपासक  आहेत  त्यांनीच  मूर्ती  अदृश्य  केली,  असा  प्रचार  गावात  करण्यास  त्याने  सुरुवात  केली. पिठपुर पीठापुरमच्या  ब्राह्मणांनी  नरसावधानींच्या  घराची  झडती  घेण्याचे  ठरविले .  ते  ब्राह्मण  श्री  बापनार्यांना  भेटले  व  झालेला  प्रकार  सांगितला.  तेव्हा  बापन्नार्य  त्या  ब्राह्मणास  म्हणाले,  सत्य 
प्रत्ययास  येईपर्यंत  मौन  राहावे.  योग्य  वेळी  या  प्रश्नाचे  समाधान  होईल.  नरसावधानींच्या  घराची  झडती  घेऊन  संशयित  स्थळी  खोदकाम  केल्यावर  तेथे  मानव  कपाल  व  क्षुद्र  विद्येस  उपयोगी  पडणाऱ्या  कांही  वस्तु  सापडल्या,  परंतु  श्रीदत्तात्रेयांची  मूर्ती  मात्र  मिळाली  नाही.  श्री  नरसावधानी  मूर्तीच्या  चोरीच्या  आरोपापासून  मुक्त  झाले.  परंतु  ते  क्षुद्र  विद्येचे  उपासक  असल्याचे  सिध्द  झाले.  दिवसेंदिवस  त्यांची  प्रकृति  क्षीण  होत  होती.  त्यांच्याकडे  एक  वांझ  गाय  होती.  तिला  बैलाप्रमाणे  शेतीच्या  कामासाठी  वापरीत  व  वेळेवर  दाणा-पाणी  सुध्दा  देत  नसत.  एके  दिवशी,  नरसावधानींच्या  विरूध्द  असलेल्या  तांत्रिकाने  त्या  गायीच्या  शरीरात  क्षुधा शक्तीचे   आवाहान  केले.  त्यामुळे  त्या  गायीने  खुंटाचे  बंधन  तोडून  टाकून  ती  घरात  शिरली  व  घरच्या  लोकांना  शिंगाने  मारू  लागली.  नरसावधानींनी  अतिप्रेमाने  लावलेला  राजगिऱ्याच्या  भाजीचा  मळा  तिने  उध्वस्त  केला.  त्या  गायीच्याजवळ  जाऊन  तिला  दोरीने  बांधणे  कोणासच  शक्य  झाले  नाही.  त्याच  दिवशी  नरसावधानींच्या  घरी  त्यांच्या  आईचे  श्राध्द  होते.  श्राध्दाचा  संपूर्ण  स्वयंपाक  झाला  होता.  श्राध्दाच्या  ब्राह्मणांचे  भोजन  झाले  होते.  घरच्या  मंडळीचे  मात्र  जेवण  अजून  झाले  नव्हते.  त्या  गायीने  सारे  अन्न  व  वडे  खाऊन  टाकले.  याच  वेळी  बालक  श्रीपाद  प्रभु  आपल्या  वडिलांना  नरसावधानींच्या  घरी  घेऊन  जाण्याचा  हट्ट  करू  लागले.  श्रीराज  शर्मा  त्यांना  घेऊन  नरसावधानींच्या  घरासमोर  जाऊन  उभे  राहिले.  तेवढयात  ती  गाय  नरसावधानींच्या  घरातून  बाहेर  आली.  तिने  अंगणात  उभे  असलेल्या  श्रीपादांना  तीन  प्रदक्षिणा  घातल्या  व  नंतर  त्यांच्या  चरणी  नतमस्तक  झाली  व  त्याच  अवस्थेत  गतप्राण  झाली.

या  प्रसंगानंतर  गावातील  लोक  अनेक  मते  व्यक्त   करू  लागले.  गायीने  खाल्लेल्या  वडयामध्ये  विष  होते  व  ते  खाल्याने  गाय  मरण  पावली.  आता  नरसावधानींना  गोहत्येचे  पातक  लागेल  असे  नाना  लोकापवाद  उठू   लागले.  यामुळे  नरसावधानी  त्रस्त  झाले  होते.  त्या  गायीने  श्रीपादांना  तीन  प्रदक्षिणा  घातल्या  व  नंतर  त्यांच्या  चरणांवर  मस्तक  ठेऊन   प्राण  सोडले.  त्या  कारणाने  श्रीपाद  हे  दैवी  अवतार  असल्याची  सर्व  लोकांची  खात्री  झाली.  राजशर्माना  आयुर्वेद  शास्त्राचे  ज्ञान  होते.  ते  नरसावधानींच्या  विनंतीनुसार  त्यांचा  औषधोपचार  करीत  होते.  परंतु  त्यांच्या  दुर्धर  रोगावर  औषधाचा  कांही  परिणाम  दिसून  येत  नव्हता.  नरसावधानींची  प्रकृती  खालावतच  गेली  आणि  त्या  रोगातच  त्यांचा  एके  दिवशी  देहांत  झाला.

नरसावधानींच्या  मृत्यूमुळे  गावातील  लोक  श्री  राजशर्मानी  त्यांना  उत्तम  औषध  दिले  नाही.  त्यामुळे  ते  आपल्या  जीवास  मुकले  असे  बोलू  लागले.  कांहीजण  म्हणू  लागले  की  श्रीपाद  श्रीवल्लभ  नरसावधानीकडे  रोज  जात  असत.  ते  जर  दत्तावतारी  असते  तर  नरसावधानींचा  मृत्यू  कसा  झाला  ?  अनेकांनी  गोहत्येचे  पातकच  त्यांच्या  देहांताचे  कारण  असल्याचा  निर्वाळा  दिला.  नरसावधानींच्या  कुटुंबियांचे  सांत्वन  करण्यासाठी  श्री  राजशर्मा  व  श्रीपाद  गेले  असताना  नरसावधानींच्या  पत्नीने  त्यांचा  हात  धरून  म्हटले  ''अरे  बाळा  श्रीपादा  !  चिमुटभर  सौभाग्याचे  वाण  घेण्यासाठी  मी  दूर  दूर  पर्यंत  हळदी  कुंकुवास  जात  होते.  तू  दत्तात्रेयच  आहेस  तर  नरसावधानी  आजोबाना  जिवंत  करणे  तुला  शक्य  नाही  का  ?''  असे  म्हणून  ती  माउली  रडू  लागली.  नवनीतासम  मृदु   हृदय  असलेल्या
श्रीपाद  प्रभूंनी  त्या  मातेचे  अश्रु  पुसले.  शवयात्रा  सुरू  झाली.  राजशर्मा  व  श्रीपाद  त्या  अंतिम  यात्रेत  सहभागी  झाले.  नरसावधानीच्या  ज्येष्ठ  पुत्राने  पित्याच्या  चितेस  अग्नी  देण्यासाठी अग्नी  हातात  घेतला.  त्याच  वेळी  श्रीपादांच्या  नयनांतून  दोन  थेंब  बाहेर  पडले.  याच  वेळी  मेघगर्जनेसारख्या  आवाजात  श्रीपाद  म्हणाले  ''अहाहा  !  मृत   झालेल्या  पित्याच्या  शरीरास  अग्नी  देणारे  पुत्र  तर  पाहिले.  परंतु  जिवंत  पित्यास  अग्नी  देणाऱ्या  पुत्रास  पाहिले  नाही.''  हे  वक्तव्य   ऐकून  स्मशानात  जमलेले  सारे  लोक  निस्तब्धतेने  श्रीपादांकडे  पाहू  लागले.  श्रीपादांनी  चितेवर  असलेल्या  नरसावधानींच्या  भ्रूमध्यावर  अंगुष्ठाने  स्पर्श  केला,  त्या  दिव्य  स्पर्शाने  नरसावधानींच्या  अंगात  चैतन्य  स्फुरू  लागले  आणि  आश्चर्य  असे  की  कांही  क्षणातच  ते  चितेवरून  खाली  उतरले.  त्यांनी  श्रीपाद  प्रभूंना  साष्टांग  नमस्कार  केला.  नंतर  ते  सर्व  लोकांबरोबर  घरी  परतले.  त्यांना  सजीव  घरी  आलेले  पाहून  त्यांच्या  पत्नीस  अत्यंत  आनंद  झाला.  श्रीपादप्रभूंच्या  अंगुष्ठ  स्पर्शाने  नरसावधानींना  कर्मसूत्राचे  सूक्ष्म  ज्ञान  आले.  त्यांच्या  घरातील  मृत   झालेली  वांझ  गाय,  ही  गत  जन्मातील  नरसावधानींची  माता  होती.  त्यांच्या  घरी  असलेला  बैल  हे  त्यांचे  पिताश्री  होते.  या  गोष्टीचा  बोध  नरसावधानींना  झाला.  मरते  समयी  त्या  गायीने  श्रीपाद  प्रभुंना  आपले  दुध  त्यांनी  प्यावे  अशी  विनंती  केली  होती.  पुढच्या  जन्मी  जेंव्हा  वांझ  म्हैस  म्हणून  ती  जन्माला  येईल  त्यावेळी  श्रीपाद  प्रभु  नृसिंहसरस्वती  अवतारात  तिचे  दुग्धपान  करतील.  हे  श्रीपादानी  गायीस  दिलेले  वचन  नरसावधानींना  कळले.  ज्या  तांत्रिकाने  नरसावधानींवर  प्रयोग  केला  होता,  त्याचा  मृत्यू  लवकरच  होणार  असून,  पुढच्या  जन्मी  तो  ब्रह्मराक्षसाच्या  योनीत  जन्म  घेणार  असून,  त्याच्यावर  यतिरूपात  असलेल्या  श्रीपादांचा  अनुग्रह  होईल  असे  सूक्ष्म  लोकातील  विषय  नरसावधानींना  श्रीपादाच्या  कृपाप्रसादाने  ज्ञात  झाले.  त्यांना  स्वत:च्या  पुढील  जन्माची  माहिती  सुध्दा  कळली.  पुढील  जन्मात  त्यांच्या  घरी  यतीरूपाने  श्रीपाद  प्रभु  येऊन  त्यांच्याकडून  राजगिऱ्याच्या  भाजीची  भिक्षा  स्वीकारून,  राजगिऱ्याचे  पीक  स्वहस्ते  नष्ट  करून,  त्याच्या  मुळाशी  असलेला  सोन्याच्या  नाण्यांनी  भरलेला  हंडा  त्यांना  देतील.  ही  भविष्यवार्ता  नरसावधानींना  श्रीपादांच्या  अंगुली  स्पर्शाने  कळली  होती.

श्रीपादांचा  चेहरा  अतिशय  सात्विक,  सुंदर,  दैदिप्यमान  असा  होता.  त्यांची  तुलनाच  होऊ  शकत  नाही.  श्रीपाद  प्रभुंनी  नरसावधानी  आणि  त्यांच्या  पत्नीस  केलेला  उपदेश,  त्यांचा  अनुग्रह  केलेली  विधाने  मी  तुला  उद्या  सांगेन.  आता  आपण  त्यांचे  स्मरण  करीत  भजनात  रंगून  जाऊ  या.  ज्या  ठिकाणी   त्यांचे  नामस्मरण,  भजन,  कीर्तन  होते,  त्या  ठिकाणी   श्रीपाद  प्रभु  सूक्ष्म  रूपाने  संचरण  करीत  असतात,  हे  अक्षर  सत्य  आहे
तिरुमलदासासारख्या  भक्ताच्या  सत  संगतीने  आनंदाने  आम्ही  पुलकित  झालो. 
॥  श्रीपाद  श्रीवल्लभांचा  जय  जयकार  ॥